हमास-इस्राइल युद्ध : तथ्य और तर्क से परे सच

Last Updated 17 Oct 2023 01:30:54 PM IST

हमास-इस्राइल युद्ध को लेकर पूरी दुनिया दो भागों में बटी हुई है और इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। स्वंय भारत में देखिए तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से लेकर लगभग सभी मुस्लिम संगठन और कई प्रमुख पार्टियां और नेता इस्राइल को अपराधी साबित कर रहे हैं।


हमास-इस्राइल युद्ध के तथ्य और तर्क से परे सच

कांग्रेस पार्टी ने अपने बयान में हमास की एक शब्द में भी आलोचना नहीं की और फिलिस्तीन राज्य का समर्थन किया है। पाकिस्तान से लेकर ईरान, जॉर्डन, सीरिया, लेबनान सब इस्राइल के विरोध और हमास के साथ खड़े दिख रहे हैं।

पूरी इस्लामी दुनिया में इस्राइल के विरु द्ध प्रदर्शन हो रहे हैं। हालांकि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों ने फिलीस्तीन के पक्ष में प्रदर्शन पर तत्काल रोक लगा दिया है। भारत में एक बड़े वर्ग की आपत्ति इस पर है कि आखिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने युद्ध में इस्राइल का समर्थन क्यों व्यक्त कर दिया? यह दुर्भाग्य है कि पूरी स्थिति को लेकर एकपक्षीय, आधी-अधूरी और कुछ मायनों में तथ्यों से परे बातें की जा रही हैं। इसलिए संबंधित कुछ तथ्यों को सामने लाना आवश्यक है।

एक-हमास ने इस्राइल के एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में जिस तरह का हमला किया वैसा पहले वहां कभी नहीं हुआ था। इससे घृणित आतंकवादी हमला कुछ नहीं हो सकता। छोटे-छोटे बच्चे- बच्चियों, महिलाएं, पुरुषों की नृशंस हत्याएं तो हुई ही, जैसी उनके साथ क्रूरता हुई उसकी तो समान्यत: कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। हमास ने इस्लामिक स्टेट आईएस की क्रूरता की सिहरन भारी यादों को ताजा कर दिया।

हमास आतंकवादी है और जिस देश पर उसने हमला किया, आतंकवाद के विरु द्ध संघर्ष में उसी का साथ दिया जा सकता है। दो-इसका यह अर्थ नहीं है कि भारत की फिलिस्तीन नीति बदल गई है। भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह शांतिपूर्ण वैध तरीके से स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र का समर्थन करता था और है। तीन-भारत में फिलिस्तीन और एक समय फिलिस्तीन मुक्ति संगठन के यासिर अराफात के साथ रोमांसवादी भाव था, किंतु किसी प्रधानमंत्री ने फिलिस्तीन जाने का साहस नहीं किया। यह बात इस्राइल के संदर्भ में भी है। क्यों? कोई प्रधानमंत्री आज तक फिलिस्तीन क्यों नहीं गया था? चार-नरेन्द्र मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने इस्राइल तथा फिलिस्तीन दोनों देशों का दौरा किया।

वास्तव में भारत की फिलिस्तीन नीति कभी बदली ही नहीं। जब अमेरिका ने यरुशलम को इस्राइल की राजधानी के रूप में मान्यता दिया तब भारत ने इसका समर्थन नहीं किया। संयुक्त राष्ट्रसंघ में प्रस्ताव आने पर भारत ने इसके विरुद्ध मतदान किया। इसलिए यह कहना बिल्कुल गलत है कि मोदी सरकार ने फिलिस्तीन की कीमत पर इस्राइल को प्राथमिकता दे दी है। फिलिस्तीन की यात्रा में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हम फिलिस्तीन की शांति और संप्रभुता के लिए प्रतिबद्ध हैं। हमारा मानना है कि बातचीत और गहन कूटनीति से ही हिंसा के चक्र और इतिहास के बोध से मुक्ति पाई जा सकती है। फिलिस्तीन ने प्रधानमंत्री मोदी को विदेशियों को दिया जाने वाला सबसे बड़ा सम्मान ‘ग्रैंड कॉलर’ प्रदान किया।

फिलिस्तीन राष्ट्र के समर्थन का अर्थ हमास की आतंकवादी क्रूरता का समर्थन नहीं हो सकता। हर देश और व्यक्ति को इस समय हमास के आतंकवाद के विरु द्ध तथा इस्राइल के संघर्ष के साथ सक्रिय रूप से खड़ा होना चाहिए और यही भारत कर रहा है। अब आइए कुछ दूसरे तथ्यों पर। पाकिस्तान इस समय फिलिस्तीन-फिलिस्तीन चिल्ला रहा है। फिलिस्तीनियों के साथ उसका व्यवहार क्या रहा है? फिलिस्तीन और जॉर्डन के इतिहास में जिसे ‘ब्लैक सितम्बर’ कहा जाता है वह क्या है? सितम्बर 1970 में यासिर अराफात ने पूर्वी जॉर्डन में वहां के सुल्तान को चुनौती दी और विद्रोह कर दिया। पॉपुलर फ्रंट फॉर द लिबरेशन ऑफ फिलिस्तीन (PFLP) ने चार अंतरराष्ट्रीय विमानों का अपहरण कर लिया और जॉर्डन के रेगिस्तान में एक सुनसान हवाई पट्टी, डॉसन फील्ड में तीन को उड़ा दिया। हुसैन ने माशर्ल लॉ और गृहयुद्ध की घोषणा की। सीरिया फिलिस्तीनियों के समर्थन में उतरा और उसके 250 टैंक जॉर्डन में घुस गया। वहां पाकिस्तान सेना के तत्कालीन ब्रिगेडियर जनरल जियाउल हक के नेतृत्व में फिलिस्तीनियों का कत्लेआम हुआ। मोटा आंकड़ा है कि आठ से 10 हजार फिलिस्तीनी मारे गए। क्या पाकिस्तान को कोई याद दिलाएगा कि फिलिस्तीनियों के साथ आपकी क्या नीति रही है? यासिर अराफ़ात भारत आते थे लेकिन पाकिस्तान नहीं जाते थे।

हमास का आरोप है कि इस्राइली सैनिक पवित्र अल अक्सा मस्जिद में घुस गए। अल-इखवान के आतंकवादियों ने सन 1979 में मक्का की पवित्र इस्लामी स्थल माने जाने वाली मस्जिद अल-हरम पर कब्जा कर लिया। सऊदी अरब ने पाकिस्तान और फ्रांस की फौजियों को निमंत्रित किया जो जूता पहने हुए अंदर घुसे थे। आतंकवादियों ने हाउस ऑफ सऊद को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया था। घोषणा की थी कि महदी (इस्लामिक शास्त्र में एक मसीहा व्यक्ति) का आगमन हो चुका है। उस युद्ध में आतंकवादियों और बंधक बनाए गए मुसलमानों की मौत से पूरी इस्लामी दुनिया हिल गई थी। प्रमुख आतंकवादी जुहेमान अल-ओतायबी और उसके 68 साथी पकड़े गए। 9 जनवरी, 1980 इनको आठ सऊदी शहरों बुरैदाह, दम्मम , मक्का, मदीना, रियाद, आभा, हेल और ताबुक के चौराहों पर सार्वजनिक रूप से सिर कलम कर दिया गया था। उस समय किसी देश ने सऊदी अरब द्वारा विदेशी सैनिकों को अंदर ले जाने का विरोध नहीं किया। जो मारे गए सारे मुसलमान ही थे। जिस तरह इस समय अमेरिका और कुछ अन्य देशों के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहा है या भारत में मोदी सरकार के विरु द्ध वैसा ही उस समय भी होने लगा था।

ईरान के नए इस्लामी क्रांतिकारी नेता, अयातुल्ला खुमैनी ने कह दिया कि यह अपराध अमेरिकी साम्राज्यवाद का काम है। सोवियत संघ ने भी यह अफवाह फैलाया कि सऊदी अरब मस्जिद पर कब्जा तो अमेरिका ने करवाया था। इससे इस्लामी देशों में जबरदस्त प्रदर्शन हुआ। इस्लामाबाद में अमेरिकी दूतावास पर भीड़ ने कब्जा कर कर आग लगा दी। त्रिपोली (लीबिया) में भी अमेरिकी दूतावास पर हमले हुए। बाद में पता चला कि सच कुछ और ही था।  अच्छा हो आम भारतीय और विश्व समुदाय अपनी भूमिका को समझें और तथ्यों के आधार पर निभाएं।

अवधेश कुमार


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