मानसून सत्र : संसद में घटती चर्चा

Last Updated 31 Aug 2023 01:47:18 PM IST

संसद लोकतंत्र का सर्वोच्च मंदिर है, पर क्या उसकी मर्यादा लगातार भंग नहीं की जा रही? भारतीय संसदीय लोकतंत्र के तीन स्तंभ माने गए हैं: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, पर संसद की सर्वोच्चता का शोर किसी से छिपा नहीं है पर क्या माननीय सांसद ही संसद की गरिमा और मर्यादा से खिलवाड़ नहीं कर रहे?


मानसून सत्र : संसद में घटती चर्चा

कभी यूपीए सरकार ने बताया था कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर लगभग ढाई लाख रुपये खर्च होते हैं। उसके बाद यह खर्च और माननीयों के वेतन-भत्ते-सुविधाओं पर होने वाला खर्च बढ़ा ही है। फिर ऐसा क्यों है कि संसद की उत्पादकता लगातार घटती जा रही है? संसद से मुख्यत: तीन कार्य अपेक्षित हैं: एक, गंभीर चर्चा के बाद विधेयक पारित कर जरूरी कानून बनाना, दो, जनहित के मुद्दों पर चर्चा करते हुए सरकार की जवाबदेही तय करना, और तीन, प्रश्नकाल-ध्यानाकषर्ण आदि प्रावधानों के जरिए महत्त्वूपर्ण विषय उठाते हुए उन पर चर्चा करना। हमारी संसद अब इन तीनों ही कसौटियों पर खरी नहीं उतर पा रही।

पिछले दिनों समाप्त हुआ संसद का मानसून सत्र किस तरह सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनीतिक रस्साकशी का शिकार हो गया-सभी जानते हैं, पर ऐसा पहली बार नहीं हुआ। इसी साल बजट सत्र भी सत्ता पक्ष और विपक्ष के राजनीतिक दांव-पेंचों की भेंट चढ़ गया था। बजट सत्र भारतीय संसदीय लोकतंत्र के सात दशक के इतिहास में सबसे कम उत्पादकता वाला सत्र रहा। अपनी जिम्मेदारी-जवाबदेही के प्रति हमारी संसद की गंभीरता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि केंद्रीय बजट तक बिना चर्चा पारित कर दिया गया। अतीत में झांकेंगे तो पाएंगे कि देश-समाज पर दूरगामी गंभीर असर डालने वाले कृषि और श्रम कानून संशोधन विधेयक तक हमारी संसद ने बिना चर्चा पारित कर दिए थे।

दरअसल, अब संसद चलती कम है, बाधित ज्यादा होती है। यह गंभीर लोकतांत्रिक संकट है, पर सत्ता पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ते हुए अपनी-अपनी भूमिकाओं की इतिश्री कर लेते हैं। ऐसे में देर-सबेर महंगी संसद की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता, पर लगता है कि अपनी सर्वोच्चता और विशेषाधिकार के प्रति संवेदनशील हमारे माननीयों को उसकी भी चिंता नहीं है। संसद की घटती बैठकों पर अरसे से चिंता जताई जाती रही है, लेकिन हालात सुधरने की बजाय बिगड़ते जा रहे हैं। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च संसद के कामकाज पर नजर रखने वाली संस्था है। उसके आंकड़े बताते हैं कि 1952 से 70 तक लोक सभा की सालाना औसतन 120 दिन बैठकें होती थीं, लेकिन पिछले साल ये घट कर मात्र 56 दिनों पर आ गई। जाहिर है, अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी-जवाबदेही के प्रति संसद की सक्रियता में यह गिरावट अचानक नहीं आई। यह प्रवृत्ति लगातार दिखाई पड़ती है। 120 दिनों के औसत से लोक सभा की बैठकें 15वीं लोक सभा (2009-14) में 63 पर आ गई। अगली लोक सभा (2014-19) में यह आंकड़ा थोड़ा बेहतर हो कर 66 पर पहुंचा पर वर्तमान लोक सभा सबसे कम उत्पादकता वाली लोक सभा का कीर्तिमान बनाने की ओर अग्रसर है।

अन्य लोकतांत्रिक देशों की संसद से तुलना करें तो भारतीय संसद की घटती बैठकें हमारे माननीय सांसदों की लोकतंत्र के प्रति गंभीरता पर सवालिया निशान लगा देती हैं। ब्रिटेन की संसद साल में औसतन 150 दिन बैठक करती है तो अमेरिकी कांग्रेस की भी साल में 100 दिन से ज्यादा बैठकें होती हैं। विडंबना यह है कि भारतीय संसद का संकट घटती बैठकों तक ही सीमित नहीं है। कम बैठकों में होने वाला काम भी कम होता जा रहा है। संसदीय कामकाज के प्रति गंभीरता पर दलगत राजनीति भारी पड़ रही है और सत्र-दर-सत्र संसद राजनीतिक अखाड़ा बनी नजर आती है। अक्सर विपक्ष पर संसद न चलने देने के आरोप लगाए जाते हैं। विपक्ष भी कह देता है कि सदन चलाना सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी है, जबकि सच यह है कि दोनों पक्षों के सकारात्मक रुख से ही यह संभव हो सकता है। यूपीए शासनकाल में अक्सर किसी न किसी मुद्दे पर संसद में होने वाले गतिरोध को उचित ठहराते हुए भाजपा नेता सुषमा स्वराज और अरु ण जेटली उसे भी विपक्ष की संसदीय रणनीति का जायज अंग बताते थे, पर पिछले बजट सत्र में खुद सत्ता पक्ष सदन की कार्यवाही बाधित करते देखा गया।

कई बार लगता है कि सब कुछ एक रणनीति के तहत होता है : विपक्ष किसी खास नियम के तहत कोई मुद्दा उठाना चाहता है, आसन अनुमति नहीं देता। परिणामस्वरूप हंगामा होता है, विपक्ष वॉकआउट कर जाता है, और उसी समय सत्ता पक्ष विधेयक आदि पारित करने का अपना विधायी काम निपटा लेता है। जरा याद करिए कि किस तरह 2021 के मानसून सत्र को पेगासस जासूसी कांड का ग्रहण लगा था, जिससे लोक सभा और राज्य सभा की उत्पादकता क्रमश: 14 और 22 प्रतिशत तक सिमट गई थी। तब मात्र 44 मिनट में पांच विधेयक पारित कर दिए गए थे। उनमें किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2021 भी शामिल था, जिसे सिर्फ  18 मिनट में पारित कर दिया गया।

पिछले दिनों समाप्त मानसून सत्र भी अपवाद नहीं। मणिपुर पर चर्चा के लिए नियम संबंधी विवाद का ऐसा साया पड़ा कि राजनीतिक रूप से संवेदनशील अविास प्रस्ताव तथा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) विधेयक, 2023 के अलावा किसी विधेयक पर गंभीर चर्चा नहीं हुई, जबकि डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण, वन संरक्षण संशोधन तथा खान एवं खनिज (विकास एवं विनियमन) समेत 23 विधेयक पारित हुए। आईआईएम (संशोधन) और अंतर सेवा संगठन समेत नौ विधेयक लोक सभा ने 20 मिनट में पारित कर दिए तो राज्य सभा ने तीन दिन में 10 विधेयक पारित कर दिए। विधेयकों पर संसद में चर्चा तो कम हो ही रही है, गंभीर चर्चा के लिए उन्हें संसदीय समितियों को भेजने की परंपरा भी पीछे छूट रही है। 15वीं लोक सभा में 71 प्रतिशत विधेयक संसदीय समितियों को भेजे जाते थे। 16वीं लोक सभा में यह प्रतिशत घट कर 27 पर आ गया और वर्तमान लोक सभा में 13 प्रतिशत ही है। आजादी के अमृतकाल में इस चिंताजनक तस्वीर पर भी संसद और माननीय सदस्यों को आत्मचिंतन करना चाहिए। राजनीति देश के लिए करनी चाहिए, देश के साथ नहीं।

राजकुमार सिंह


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