परिवारवाद : नकारात्मक चश्मे से क्यों देखना

Last Updated 31 Aug 2023 01:44:27 PM IST

व्यक्ति, परिवार, समाज और राज्य आम तौर पर राजनीतिकरण के विभिन्न चरण हैं। परिवार ही राजनीति का प्रथम प्रस्थान-बिंदु है जहां व्यक्ति को बुनियादी प्रशिक्षण प्राप्त होता है।


परिवारवाद : नकारात्मक चश्मे से क्यों देखना

नागरिक को अधिकार और कर्त्तव्य का समानांतर पाठ भी यहीं से मिलता है। राजनीति में रु चि और सामाजिक भूमिका के बोध का प्रवेश-द्वार भी इसे ही मानते हैं। इस दृष्टिकोण से राजनीति में परिवारवाद को समझना बेहद प्रासंगिक होगा।

इस नजरिए से लोकतांत्रिक दुनिया को देखना रोचक विश्लेषण हो सकता है। अमेरिका जैसे विकसित देश में एडम्स, रु जवेल्ट, विल्सन, केनेडी, क्लिंटन, बुश जैसे दर्जनों परिवारों से लेकर विभिन्न विकासशील देशों मसलन, भारत में नेहरू-गांधी परिवार, पाकिस्तान में भुट्टो परिवार, श्रीलंका में भंडारनायके परिवार, बांग्लादेश में मुजीबुर-जिया परिवार की विभिन्न पीढ़ियों ने पार्टी और सरकार का नेतृत्व किया है। अतएव भारतीय राजनीति में परिवारवाद की परिघटना कोई अनूठी नहीं है। बेशक, राजनीतिक वाद-प्रतिवाद में भाई-भतीजावाद या परिवारवाद महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा है लेकिन चुनावी हार-जीत का निर्णायक तत्व साबित नहीं हुआ है। बहरहाल, चुनाव अभियान और प्रचार-प्रसार में इसका भरपूर इस्तेमाल होता रहा है। आम चुनाव 2024 में भाजपा परिवारवाद को मुद्दा बनाकर विपक्षी दलों के खिलाफ संगठित अभियान चला रही है जबकि भाजपा में भी दर्जनों नेतागण परिवारवादी परिभाषा के घेरे में आते हैं। 

आंकड़े भी बताते हैं कि राज्यवार ऐसे कई परिवार हैं, जो वर्षो से भाजपा में राजनीतिक वर्चस्व कायम किए हुए हैं। इसलिए विपक्षी दलों के खिलाफ भाजपा का परिवारवाद का नैरेटिव नहीं चल पा रहा। महाराष्ट्र में फडनवीस-मुंडे परिवार, हिमाचल प्रदेश में अनुराग ठाकुर, राजस्थान में सिंधिया परिवार से लेकर यूपी में राजनाथ सिंह जैसे दर्जनों नेता हैं, जो इस दायरे में आते हैं। भाजपा नेतृत्व में बने एनडीए गठबंधन में भी शिवसेना, अकाली दल, लोजपा जैसे कई दल प्रतिभागी रहे हैं, जो परिवारवाद की परिभाषा में आते हैं। बीजेडी और वाईएसआर जैसे दलों का राजनीतिक समर्थन लेने भी भाजपा हमेशा उदार दिखी है। इस सच्चाई से भाजपा की चिंता कतिपय बढ़ी है। हालांकि भाजपा के अनुसार शीर्ष पद पर एक ही परिवार का राजनीतिक वर्चस्व ही परिवारवाद माना जा सकता है।

क्षेत्रीय दलों का उभार और ठसक भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण सच्चाई है। खासकर क्षेत्रीय दलों में एक परिवार का हस्तक्षेप और स्वीकार्यता बेहद मजबूत दिखाई देती है, जो सपा में मुलायम परिवार, राजद में लालू परिवार, शिवसेना में ठाकरे परिवार, अकाली दल में बादल परिवार से लेकर बसपा, टीएमसी, राकपा, वाईएसआर, बीआरएस, टीडीपी, डीएमके, जेडीएस, इनेलो, लोजपा, बीजेडी जैसे दलों की बनावट में प्रदर्शित है। वर्षो से देश के विभिन्न राज्यों में ये दल सत्ता और राजनीति के केंद्र में रहे हैं। इन राज्यों में जनता की पहली पसंद भी क्षेत्रीय दल ही हैं, जबकि राष्ट्रीय दल निरंतर हाशिए पर स्थिर हैं। क्षेत्रीय दलों के नेता, उनकी वैचारिकी और राजनीतिक कार्यक्रम की मौलिकता के समक्ष कई बार राष्ट्रीय दल प्रभावहीन साबित हुए हैं। क्षेत्रीय दल के नेता का घर-परिवार एक प्रकार से राजनीति का केंद्र रहता है और यही कारण है कि परिवार के सदस्यों का रु झान, पहचान और उत्थान स्वाभाविक हो जाता है। निस्संदेह पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के सदस्यों के नेतृत्व में होने का प्राथमिक अर्थ उनकी लोकप्रियता ही है क्योंकि इसके उलट भी कई ऐसे राजनीतिक परिवार हैं जिन्हें जनता ने सिरे से खारिज कर दिया है। चुनावी सफलता ने कई क्षेत्रीय दलों को राष्ट्रीय दल का दर्जा दिलवाया है वहीं राष्ट्रीय दल कई राज्यों में निरंतर पतन का शिकार हुए हैं।

वंशवाद या विरासत के आधार पर परिवारवाद के विरोध में तर्क दिए जाते हैं लेकिन सशक्त नेतृत्व के उत्कृष्ट उदाहरण भी उनमें से कई दलों ने प्रस्तुत किए हैं। किसी परिवार के लिए अपनी लोकप्रियता को लगातार बरकरार रखना साधारण काम नहीं है। लोकतांत्रिक मूल्यों और दलीय पण्राली की प्रक्रियाओं का पालन करते हुए लोकमत को अपने पक्ष में रखना मामूली उपलब्धि नहीं हो सकती। ये चुनाव आयोग और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के स्थापित मानकों का भी पालन करते हैं। दलीय प्रणाली की परिभाषा में क्षेत्रीय दल हैं, लेकिन उनके नेताओं की पहचान अक्सर राष्ट्रीय दिखती है। चुनावी संघर्ष के रास्ते कई बार राष्ट्रीय दलों को पटकनी देने में भी वे सफल हो जाते हैं। राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय, उनके विस्तार का आधार लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा ही माना जाता है। चुनावी प्रदशर्न ही उनके राष्ट्रीय या क्षेत्रीय होने का प्रमाणपत्र प्रदान करता है। हर दल अपनी ताकत दिखाने के लिए जनमानस के समक्ष वैचारिकी और राजनीतिक कार्यक्रम पेश करता है, और अंतत: फैसले भी चुनावी रण में ही तय होते हैं। अतएव राजनीति में परिवारवाद को मात्र नकारात्मक चश्मे से देखना वास्तविकता को नजरअंदाज करना होगा।

प्रो. नवल किशोर


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