सरोकार : विवाह का विकल्प नहीं हो सकता लिव इन

Last Updated 03 Sep 2023 01:29:37 PM IST

हाल ही में सहमति संबंध (लिव इन) में दोस्त से मिले धोखे के बाद गाजियाबाद के वैशाली में एक युवती की आत्महत्या की खबर ने गहरी चिंता पैदा की है।


सरोकार : विवाह का विकल्प नहीं हो सकता लिव इन

युवती दोस्त साकिब के साथ लिविंग रिलेशनिशप में रह रही थी। दबाव के बावजूद लड़का शादी के लिए राजी नहीं था। मजबूरन पिंकी को आत्महत्या जैसा हिंसक कदम उठाना पड़ा। ठीक इसी तरह का मामला अदनान का है जिस पर  दुष्कर्म के आरोप हैं। एक साल तक सहमति संबंध में रहने वाली युवती ने गर्भवती होने के बाद उस पर दुष्कर्म का आरोप लगाया था।
 सच भी है कि विवाह में व्यक्ति को जो सुरक्षा, सामाजिक स्वीकृति और स्थिरता मिलती है वह सहमति संबंध में कभी नहीं मिल पाती। विशेष कर महिलाओं के लिए ऐसी शादियों में सामान्य सामाजिक स्थिति हासिल करना चुनौती बन जाता है।

दरअसल, आज की युवा पीढ़ी पवित्र वैवाहिक रिश्तों में उपभोक्तावादी संस्कृति की महक तलाश रही है। अब वह वाइफ शब्द को ‘वाइज इन्वेस्टमेंट फॉरएवर’ यानी ‘सदा के लिए समझदारी वाला निवेश’ की पुरानी अवधारणा की बजाय ‘वरी इनवाइटेड फॉरएवर’ यानी ‘हमेशा के लिए आमंत्रित चिंता’ के रूप में परिभाषित करने लगी है। हमारे देश में प्राचीन काल से विवाह को एक पवित्र संस्कार माना जाता रहा है। एक मजबूत समाज की नींव इसी संस्कार के मूल में परिलक्षित होती है। विवाह यौन इच्छाओं की पूर्ति का लाइसेंस देने वाली कोई खोखली रस्म अदायगी भर नहीं बल्कि वरद शरद में  स्नेह, प्रणय और आत्मीयता की संभावना से पुष्ट पवित्र और जन्म-जन्मांतर के बंधन की परिकल्पना से स्त्रावित आत्मिक मिलन है, लेकिन आज यह पवित्र अवधारणा मैली हो रही है।

युवा पीढ़ी आजादी भरे जीवन का आनंद लेने के लिए विवाह को टालना चाहती है। वैवाहिक जिम्मेवारी उसे अनचाहा बंधन, गैरवाजिब जुड़ाव और बेवजह थोपा गया अभिशाप लगता है। वो इन सारे बंधनों को तोड़  गुड बॉय और लिव इन रिश्ते की ओर लगातार आकर्षित हो रही है, लेकिन क्या ये अतिवाद नहीं है। पीड़ा इस बात की है कि अभिभावक अपने संस्कारों और मूल्यों की भूमि पर तमाम कोशिशों के बाद भी एक अनुशासित और परंपरावादी पौध उगा पाने में असमर्थ है। देश में बढ़ते तलाक के मामले इस गंभीरता की ओर इशारा करते हैं कि सुदीर्घ परंपराएं अब अवसान के मुहाने खड़ी है। इसका घातक असर संस्कृति के टूटन में दिखेगा। जाहरि है एक दूसरे से संबंध तोड़ने की इच्छा रखने वाले जोड़े, माता-पिता द्वारा त्यागे गए बच्चे और हताश तलाकशुदा लोग जब हमारी आबादी में अधिसंख्य हो जाएंगे तो इससे हमारी सामाजिक जीवन की शांति पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।

लिव इन संबंध की आड़ में युवा पाश्चिमीकरण का एक आसान रास्ता तलाश रहे हैं ताकि अलगाव होने पर एक दूसरे को आसानी से अलविदा कह सकें। क्या वैवाहिक सम्बन्धों की बस यही नियति है कि इस्तेमाल करो और फेंक दो। युवा पीढ़ी विवाह को बुराई नहीं बल्कि आजीवन एक बुद्धिसंगत पूंजी निवेश के रूप में देखे। हम निस्संदेह दूसरी सभ्यताओं से प्रभावित हों, लेकिन प्रभाव और बदलाव की यह राह सम्बन्धों के बिखराव के शर्त पर न हो। स्वार्थ, उपभोक्तावाद और अतिवाद संबंधों को कहीं लील न ले इससे पहले चेतना होगा। भारत भूमि पर रिश्तों की गरिमा और स्निग्धता की पुष्पांजलि बिखरती रहे इसलिए इस पौध को संस्कारित, अनुशासित और सुगंधित करना जरूरी है।

डॉ. दर्शनी प्रिय


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