सामयिक : ’जनरल‘ की पहचान जरूरी
बालासोर रेल क्रैश (Balasore Rail Crash) की जांच सीबीआई (CBI) के सुपुर्द करना भले ही साजिश या दुर्घटना का फासला समझना हो, लेकिन बड़ा सवाल, जिसका जवाब जरूरी है, है कि क्या रेलवे में अपनाई जा रही तकनीकें पूरी तरह से सुरक्षित हैं?
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इधर, याद भी नहीं कि देश में कभी हवा से बातें करती हुई कोई सवारी गाड़ी ट्रैक पर खड़ी मालगाड़ी से जा टकराई हो जिसमें लौह अयस्क भरा हो जिससे मालगाड़ी अपनी जगह से हिले। कोरोमंडल सवारी गाड़ी के साथ यही हुआ। मालगाड़ी से टकराए डिब्बे ताश के पत्तों सरीखे दूर दूसरे ट्रैक तक बिखर गए। दुर्योग ही था कि चंद सेकंड के अंतर पर यशवंतपुर एक्सप्रेस आ गई जिसकी आखिरी दो बोगियां कुछ सेकंड पहले क्रैश होकर छिटकी कोरोमंडल के डिब्बों से जा टकराई।
देर शाम के धुंधलके में हुई दुर्घटना की भयावहता का अंदाजा कृत्रिम रोशनी से हो तो गया था लेकिन हकीकत सुबह सामने आई जब सूरज की रौशनी छिटकते ही सारे मंजर की सरसरी तस्वीरों ने रोंगटे खड़े कर दिए। उससे भी ज्यादा ड्रोन तस्वीरों में ऊपर से दिखे आपस में गुंथे डिब्बों ने हतप्रभ कर दिया। दुर्घटना के मानवीय पहलू से ज्यादा यांत्रिकीय और तकनीकी पहलू पर पहली बार इतनी चर्चा होना बताता है कि वजह और सच्चाई उतनी साफ नहीं है, जो होनी चाहिए। रेलवे बोर्ड के चंद सदस्य न्यूज चैनलों पर नक्शे दिखाकर जिस तरह सफाई देते रहे उससे कई सवाल कौंधने वाजिब हैं। सीबीआई जांच हो रही है तो फिर अंदेशों पर ऐसी हाय-तौबा कैसी?
भारत में रेल दुर्घटनाओं के आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर हादसे आउटर के बाद मुख्य ट्रैक के लूप ट्रैकों पर बंटी शाखाओं में होते हैं। इंटरलॉकिंग मैनुअल व्यवस्था डिजिटलाइज हो गई, ट्रैक पर बिछा एक पतला तार स्टेशन कंट्रोलर की स्क्रीन पर सारी गतिविधियों को विज्युअलाइज करता है। उपलब्धि और रेल हादसे के बीच नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी सीएजी की वो रपट बेहद सुर्खियां में है, जिसमें 2017-18 से 2020-21 के बीच खराब ट्रैक रखरखाव, ओवरस्पीडिंग और मैकेनिकल फेल्योर ट्रेनों के डिरेलमेंट के प्रमुख कारण गिनाए गए। दिसम्बर, 2022 में संसद में पेश रिपोर्ट में ट्रैक के रखरखाव की कमी अहम तो दूसरी ट्रैक नवीनीकरण हेतु समुचित पैसा नहीं होना बताया गया। अब एक धारणा आम हो रही है जो चिंतनीय है कि सरकार का पूरा ध्यान बड़े और अभिजात्य वर्ग पर है। वन्दे भारत ट्रेनों के शुभारंभ की चमकदार तस्वीरों, बुलेट ट्रेन की गुदगुदाती बातों पर जनप्रतिक्रिया से समझ आता है कि बहुसंख्य मध्यमवर्गीय भारतीयों की इसमें सवारी की अभी हैसियत नहीं है। ऐसे में क्या लक्जरी ट्रेनों पर फोकस वाजिब है? आम लोगों की जनरल रेलगाड़ियां और पटरी पर किसका ध्यान है? 100 प्रतिशत सच्चाई भी है कि आम सवारी गाड़ियों का परिचालन-संचालन ठीक नहीं है। मेमू, डेमू और जनशताब्दी ट्रेनों की बातें भूल कर चुनिंदा प्रीमियम गाड़ियों और स्टेशनों पर सुविधा से 140 करोड़ की आबादी वाले देश में 90 प्रतिशत लोगों का कोई सरोकार है ही नहीं। वहीं एक बात और कि जब से आम बजट में रेल बजट का विलय हुआ है, तब से भारतीय जनमानस को रेलवे की गहराई से जानकारी नहीं हो पाती। याद कीजिए, पहले रेल बजट को लेकर लोग कैसे उत्साहित रहते थे। आम और खास का पूरा ध्यान अपने क्षेत्र की सुविधाओं पर होता था, बड़े ध्यान से रेल बजट सुना जाता था।
रेलवे पूरी तरह से व्यावसायिक रंग में रंगी दिखती है, जो सभी समझ रहे हैं1 ज्यादातर कोयला गाड़ियां दिखना आम है। 2.8 किमी. लंबी चार मालगाड़ियां यानी 251 बोगी जोड़कर 4 इलेक्ट्रिक इंजनों को कभी शेषनाग तो कभी एनाकोंडा तो कभी सुपर एनाकोंडा, तो कभी 177 बोगियों के साथ 15 हजार टन लोड लेकर दौड़ना। इससे भी आगे मौजूदा रेल मंत्री ने नया रिकॉर्ड बना डाला। स्वतंत्रता की 75वीं वषर्गांठ पर सुपर वासुकी स्पेशल फ्रेट ट्रेन-सुपर वासुकी-नाम से चलवाई। 6 इंजन, 295 डिब्बे (6 मालगाड़ी बराबर), साढ़े 3 किमी. लंबी दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे यानी बिलासपुर रेल जोन में दौड़ी गाड़ी अमृत महोत्सव का हिस्सा बन सबसे भारी और लंबी मालगाड़ी बनी। 27000 टन कोयला भर कर कोरबा से राजनांदगांव के परमकला 260 किमी. का सफर 11 घंटे 20 मिनट में पूरा हुआ। इससे 2 करोड़ 54 लाख रु पये का एक चक्कर का भाड़ा मिला। इसके फर्राटे से गुजरते वीडियो को रेल मंत्री अिनी वैष्णव ने अपने ट्विटर हैंडल शेयर कर फख्र से लिखा कि स्टेशन पार करने में लगभग 4 मिनट लगे।
वहीं इसी रेल जोन का दूसरा स्याह पहलू भी है। बिलासपुर-कटनी रूट पर चलने वाली गाड़ियां, जिनमें हमसफर, संपर्क क्रांति, सुपर फास्ट तक शामिल हैं, घंटों लेटलतीफी का रिकॉर्ड बना रही हैं। यह अकेला रूट हो चुका है जहां आगे कनेक्टिंग ट्रेन मिलेगी या नहीं कोई नहीं जानता। इसी अनिश्चितता से रोजाना हजारों यात्री परेशान होते हैं। सैकड़ों कंफर्म टिकट बेकार होकर रेलवे की झोली भरते हैं। बेशक, कोयला ढ़ुलाई में बिलासपुर जोन का नाम अहम है, लेकिन सवारी गाड़ियों की बदहाली, लेटलतीफी की भी बानगी है।
140 करोड़ का आंकड़ा छूते ही दुनिया में आबादी नंबर वन पर हम जरूर पहुंच गए लेकिन लगता नहीं कि उसी रफ्तार से रेलयात्री सुविधाएं भी बढ़ीं? बिलासपुर-कटनी फ्रेट कॉरीडोर रूट लगभग चालू है। स्थानीय सांसद ने प्रधानमंत्री से मुलाकात कर शहडोल-नागपुर बेहद जरूरी ट्रेन की बात रखी। रेल मंत्री ने भी आासन दिया। बरस बीत गया न ट्रेन मिली न जवाब। यह हाल है उस जोन का है जो कोयला भाड़ा से जितना जबरदस्त कमाता है, यात्री सुविधाओं की उतनी ही दुर्दशा भी है। कोरोमंडल एक्सप्रेस में टक्कररोधी यानी एंटी-कोलिजन उपकरण नहीं होने की बातें सामने आई। सीबीआई सहित अन्य जांच में फोरेंसिक प्रक्रिया अपनाई जाएगी। पूछताछ होगी जिससे शायद इलेक्ट्रॉनिक तकनीक पर उठ रहे सवालों के जवाब मिलें? रेलपांतों पर बिछने वाला वो पतला तार जो स्क्रीन पर ट्रैक की सारी गतिविधियों को मॉनीटर करता है, खुद कैसे ट्रेस होगा? आरक्षित यात्रियों का लेखा-जोखा तो है, लेकिन जनरल बोगियों में कितने लोग कहां-कहां से थे, कैसे पता चलेगा? सरकारी आंकड़े और वास्तविक आंकड़ों की जंग पहले की दुर्घटनाओं की तरह न कभी खत्म हुई, न इसमें होगी। ऐसे हालात में जनरल बोगियों के सफर में भी क्या पहचानपत्र की अनिवार्यता जरूरी नहीं लगती? यात्री अपनी पहचान के साथ ही सवार हो, हर टिकटधारी की पहचान, मोबाइल नंबर और गाड़ी का विवरण हो। दुर्भाग्यजनक स्थितियों में वास्तविक आंकड़ों और पहचान का यह बेहतर तरीका होगा जिससे परेशान परिजनों, बेसुध घायलों, मारे गए लोगों की पहचान तो हो सकेगी! विंडो पर थोड़ा वक्त जरूर लगेगा, लेकिन जान, जहान और पहचान के लिए इसमें बुराई क्या है?
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