मुद्दा : विनाश की नींव पर विकास अनुचित

Last Updated 14 Mar 2023 01:42:55 PM IST

यूं तो सृजन और विध्वंस प्रकृति की अनवरत चलने वाली प्रक्रियाएं हैं, और सत्य तो यह है कि ये दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं।


मुद्दा : विनाश की नींव पर विकास अनुचित

बिना सृजन के विध्वंस का कोई अर्थ नहीं एवं विध्वंस के बगैर नवीन सृजन की कल्पना करना भी असंभव है। पृथ्वी पर मानव सभ्यता ने शनै: शनै: विकास के शिखरों को स्पर्श करना आरंभ किया। पुरापाषाण काल में पत्थरों को रगड़कर आग के आविष्कार एवं नवपाषाण काल में स्थाई निवास की प्रवृत्ति से लेकर वर्तमान में पृथ्वी से बाहर अंतरिक्ष में अपने कदम रखने के अनवरत प्रयासों तक, यदि समय के साथ मानव विकास के ग्राफ का अवलोकन किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है कि मानव ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उत्तरोत्तर प्रगति की है।
वृक्षों एवं कंदराओं से लेकर बहुमंजिला इमारतों तक, फल, फूल, पत्ती से लेकर स्वादिष्ट व्यंजनों तक, अशिक्षा से लेकर उच्च स्तरीय तकनीकी तक, पदयात्रा से लेकर वायुयान के सफर तक, जीवन के किसी भी क्षेत्र को देखा जाए तो प्रत्येक में विकास एवं प्रगति के द्वारा जमीन से आसमान तक का सफर दृष्टिगोचर होता है। वर्तमान परिदृश्य की बात की जाए, तो विज्ञान एवं तकनीकी की मदद से मानव निरंतर आगे बढ़ रहा है। किंतु एक विचारणीय एवं चिंतनीय प्रश्न यह उठता है कि विकास की इस द्रुतगति की नींव आखिर कैसी है।

मानव सभ्यता के शुरु आती चरणों में विकास को आवश्यकता के द्वारा गति प्रदान की गई। आग, भोजन आवास इत्यादि मानव की आवश्यकताएं थीं,  लिहाजा यदि इनकी दिशा में हुई प्रगति को विकास की संज्ञा दी जाए तो वह विकास जरूरतों पर आधारित था। किंतु वर्तमान का परिदृश्य बिल्कुल अलग है। कटु सत्य यह है कि जिन उपलब्धियों को हम विकास की श्रेणी में रखते हैं, उनके पीछे आवश्यकता के स्थान पर स्वार्थ, लोभ, प्रतिद्वंद्विता, दिखावटीपन एवं अनावश्यक शौक जैसे कारक उत्तरदायी हैं।

नतीजा यह है कि आधुनिक विकास कहीं न कहीं विनाश की नींव पर खड़ा है। प्रकृति ने मानव को धरती मां की गोद के रूप में संसाधनों का एक अतुलनीय एवं असीमित भंडार प्रदान किया। किंतु मानव ने उन्हीं संसाधनों का अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए अनियंत्रित दोहन शुरू कर दिया। उदाहरण के तौर पर, आज कृषि योग्य भूमि को आवासीय भूमि में तब्दील करके कॉलोनी का निर्माण करने का फैशन बहुत जोरों पर है। दोमंजिला मकानों, उद्यान, शॉपिंग कांपलेक्स आदि छद्म सुंदरताओं से युक्त कॉलोनी वस्तुत: कृषि भूमि के विनाश की नींव पर ही खड़ी होती है। आज मानव की प्रवृत्ति एक से अधिक आवास बनाने की है क्योंकि कहीं न कहीं उसकी मानसिकता व्यवसायोन्मुखी हो चुकी है।

सड़क मार्गों का चौड़ीकरण हो रहा है जिसके लिए सड़क के किनारे लगे वृक्षों को बिना विचारे काटा जा रहा है। निश्चित रूप से एक बेहतरीन चौड़ा सड़क मार्ग तैयार तो होगा, किंतु यदि यह विकास है तो हमें इतना निश्चित रूप से ध्यान रखना चाहिए कि यह विकास कटे हुए वृक्षों की चीत्कार की  नींव पर आधारित होगा। शहरीकरण की अंधी होड़ जंगलों, खेतों और खलिहानों को समाप्त कर रही है। प्राकृतिक संसाधनों के साथ खिलवाड़ करने में मानव सीमा को लांघ चुका है। औद्योगीकरण और शहरीकरण की दौड़ के चलते भूजल के अतिदोहन के कारण जल संकट की भीषण समस्या मुंह खोलकर सामने खड़ी है। कारखानों से निकलने वाली विषैली गैसें और धुंआ वायु को किस हद तक प्रदूषित कर रहा है, इसका अंदाजा तक लगा पाना मुश्किल है। खास बात यह है कि उसी दूषित हवा में लाखों की आबादी सांस लेने को विवश है। हम बड़े शहर की किसी कॉलोनी में अपना आवास बनाने को ही विकास समझने की झूठी खुशी में पागल हो चुके हैं। प्रकृति को चोट पहुंचाकर एवं बहुमूल्य संसाधनों का विनाश करके झूठी शानशौकत व दिखावटीपन को विकास समझना मानव की सबसे बड़ी भूल है।

इतना तय है कि जब प्रकृति बदला लेगी तो उसमें कहीं पर भी क्षमा याचना की गुंजाइश नहीं होगी। हाल ही में जोशीमठ में आई भीषण आपदा से हम सब भलीभांति परिचित हैं। यदा-कदा भूकंप, बादल फटना, भूमि का धंसाव, भूस्खलन इत्यादि सभी प्रकृति के द्वारा मानव को दी गई चेतावनियां हैं। हमें चाहिए कि हम अंधी दौड़ को बंद करके आवश्यकता की नींव पर ही विकास की इमारत को खड़ा करें। यदि हमारे लिए एक मकान पर्याप्त है तो दिखावटीपन के वशीभूत होकर हम चार मकान खरीदने की कोशिश कदापि न करें। जो भूमि हमें अन्न देती है और हमारा पेट भरती है, जो जंगल एवं पेड़ पौधे हमारे लिए अगणित प्रकार से उपयोगी हैं, उनका नाश करके हम विकास करने का प्रयास कदापि न करें। यदि हम समय रहते सचेत न हुए, तो एक समय ऐसा आएगा जब हमें केवल ऊपर का विकास दिखाई देगा किंतु उसके भीतर विनाशजनित आपदाओं का एक ज्वालामुखी सुषुप्त अवस्था में होगा जो निसंदेह कभी भी फट पड़ेगा।

शिशिर शुक्ला


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