बढ़ती गर्मी : पारंपरिक तरीका ही प्रभावी

Last Updated 13 Mar 2023 01:54:46 PM IST

पिछले कुछ हफ्तों से मौसम वैज्ञानिकों के हवाले से ये खबर आ रही है कि इस साल भीषण गर्मी पड़ने वाली है।


बढ़ती गर्मी : पारंपरिक तरीका ही प्रभावी

इसके संकेत तो पिछले महीने ही मिलने शुरू हो गए थे जब दशकों बाद फरवरी के महीने में तापमान काफी ऊंचा चला गया। इस खबर से सबसे ज्यादा चिंता कृषि वैज्ञानिकों और किसानों को है। ऐसी भविष्यवाणियां की जा रही हैं कि अभी से बढ़ती जा रही गर्मी आने वाले हफ्तों में विकराल रूप ले लेगी जिससे सूखे जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। खरीफ की फसल पर तो इसका बुरा असर पड़ेगा ही पर रबी की उपज पर भी विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि बढ़ती गर्मी के कारण गेहूं का उत्पादन काफी कम रहेगा। फल और सब्जियों के उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। नतीजतन, खाद्य पदाथरे के दामों में काफी बढ़ोतरी की संभावना है। कितना असर होगा यह तो अप्रैल माह के बाद ही पता चल पाएगा पर इतना तो साफ है कि कम पैदावार के चलते किसान बुवाई भी कम कर देंगे जिसका उल्टा असर ग्रामीण रोजगार पर पड़ेगा। दरअसल, गर्मी बढ़ने का एक प्रमुख कारण सर्दियों में होने वाली बारिश का लगातार कम होते जाना है। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार दिसम्बर, जनवरी और फरवरी में औसत तापमान से एक या दो डिग्री ज्यादा दर्ज किया गया है। इतना सा तापमान बढ़ने से बारिश की मात्रा घट गई है। यह तो रही कृषि उत्पादन की बात, लेकिन अगर शहरी जीवन को देखें तो यह समस्या और भी बड़ा विकराल रूप धारण करने जा रही है।
हमारा अनुभव है कि गर्मिंयों में जब ताल-तलैये सूख जाते हैं, और नदियों में भी जल की आवक घट जाती है, तो सिंचाई के अलावा सामान्य जन-जीवन के लिए भी पानी का संकट गहरा जाता है। नगर पालिकाएं आवश्यकता के अनुरूप जल की आपूर्ति नहीं कर पातीं। इसलिए निर्बल वर्ग की बस्तियों में अक्सर सार्वजनिक नलों पर संग्राम छिड़ते हुए देखे जाते हैं। नलों में पानी बहुत कम देर के लिए आता है। मध्यमवर्गीय परिवारों को भी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप पानी एकत्र करने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। राजनेताओं, अधिकारियों और संपन्न लोगों को इन विपरीत परिस्थितियों में भी जल संकट का सामना नहीं करना पड़ता क्योंकि ये लोग आवश्यकता से कई गुना ज्यादा जल जमा कर लेते हैं। असली मार तो आम लोगों पर पड़ती है।  भीषण गर्मी पड़ने के साथ अब लोग कूलर या एयर कंडीशनर की तरफ भागते हैं। इससे जल और विद्युत, दोनों का संकट बड़ जाता है। हाइड्रो पावर प्लांट में जल आपूर्ति की मात्रा घटने से विद्युत उत्पादन गिरने लगता है। जैसे-जैसे समाज पारंपरिक तरीकों को छोड़ कर बिजली से चलने वाले उपकरणों की तरफ बढ़ रहा है, वैसे-वैसे वातावरण और भी गर्म होता जा रहा है। एयर कंडीशनरों से निकलने वाली गैस भी वातावरण को प्रदूषित करने और गर्मी बढ़ाने का काम कर रही है। 1974-76 के बीच मैं एक स्वयंसेवक के रूप में मुरादाबाद के निकट अमरपुरकाशी गांव में समाज सेवा की भावना से काफी समय तक रहा। इस दौरान हर मौसम में गांव के जीवन को जिया।
मुझे याद है कि मई-जून की तपती गर्मी और लू के बावजूद हम सब स्वयंसेवक दोपहर में खुले दालान पर नीम के पेड़ की छाया में सोया करते थे। तब वो छाया ही काफी ठंडी लगती थी। गर्म लू जब पसीना सुखाती थी तो शरीर में ठंडक महसूस होती थी। इसी तरह रात में छत पर पानी छिड़क कर सब सो जाते थे। रात के ग्यारह-बारह बजे तक तो गर्म हवा चलती थी, फिर धरती की तपिश खत्म होने के बाद ठंडी हवा चलने लगती थी। सूर्योदय के समय की बयार तो इतनी स्फूर्तिदायक होती थी कि पूरा शरीर नई ऊर्जा से संचालित होता था। वहां न तो फ्रिज का ठंडा पानी था, न कोई और इंतजाम। लेकिन हैंडपंप का पानी या मिट्टी के घड़े का पानी शीतलता के साथ सौंधापन लिए शरीर के लिए भी गुणकारी होता था। जबकि आज आरओ के पानी ने हम सबको बीमार बना दिया है क्योंकि आरओ की मशीन जल के सभी प्राकृतिक गुणों को नष्ट कर देती है। कुएं से एक डोल पानी खींच कर सिर पर उड़ेलते ही सारे बदन में फुरफुरी आ जाती थी। जिस से दिन भर के श्रमदान की सारी थकावट क्षणों में काफूर हो जाती थी।
आजकल हर व्यक्ति, चाहे उसकी हैसियत हो या न हो, शरीर को कृत्रिम तरीके से ठंडा रखने के उपकरणों को खरीदने की चाहत रखता है। हम सब इसके शिकार बन चुके हैं, और इसका खमियाजा मौसम के बदले मिजाज और बढ़ती गर्मी को झेल कर भुगत रहे हैं। इस आधुनिक दिनचर्या का बहुत बुरा प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ रहा है। हर शहर में लगातार बढ़ते अस्पताल और दवा की दुकानें इस बात के प्रमाण हैं कि ‘सुजलाम सुफलाम मलयज शीतलाम, शस्यश्यामलाम’ वाले देश के हम सब नागरिक बीमारियों से घिरते जा रहे हैं। न तो हमें अपने भविष्य की चिंता है, न ही सरकारों को। समस्याएं दिन-प्रतिदिन सुलझने की बजाय उलझती जा रही हैं। दूसरी तरफ हर पर्यावरणविद् मानता है कि पारंपरिक जलाशयों को सुधार कर उनकी जल संचय क्षमता को बढ़ा कर और सघन वृक्षावली तैयार करके मौसम के मिजाज को कुछ हद तक बदला भी जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जल शक्ति अभियान और बरसों से चले आ रहे वृक्षारोपण के सरकारी अभियान ईमानदारी से चलाए जाते तो देश के पर्यावरण की हालत आज इतनी दयनीय न होती।
सभी जानते हैं कि सरकार द्वारा जहां एक ओर तो वृक्षारोपण और तालाब खोदने को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं जमीनी स्तर पर कथनी और करनी में काफी अंतर है। मिसाल के तौर पर जालौन क्षेत्र में 400 छोटे बांध बनाए गए थे। इनमें से आधे से ज्यादा तबाह हो चुके हैं। ललितपुर जिले में जल संरक्षण के लिए तीन करोड़ रुपये से चल रहा काम निर्थक हो चुका है। इसी इलाके में बादहा और रसिन बांध के नाम पर करोड़ों खर्च हुए लेकिन इनका नतीजा भी शून्य ही रहा। उधर, मथुरा में 2019 दावा किया गया कि सरकार द्वारा 1086 कुंड गहरे खोद कर जल से लबालब भर दिए गए हैं जबकि जमीनी हकीकत इसके बिल्कुल विपरीत पाई गई।

विनीत नारायण


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment