राष्ट्रपति चुनाव : नजर आ रहा विपक्ष का बिखराव
भारत की मौजूदा राजनीति में अग्नि कन्या के नाम से मशहूर तृणमूल कांग्रेस की मुखिया और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को विरोध का पर्यायवाची कहा जा सकता है।
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राजनीतिक विरोधियों से किस तरह लोहा लेना है, या छत्तीस का आंकड़ा कायम करना है, यह ममता भली भांति जानती हैं। जब से यानी 2014 से केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार बनी और मोदी प्रधानमंत्री बने तब से कई दफा ममता ने केंद्र सरकार और विशेषकर प्रधानमंत्री मोदी को घेरने की कोशिश की है, ममता इसमें कितनी सफल रहीं और कितनी असफल, यह अलग मुद्दा है, लेकिन ममता वह सब जरूर करती हैं, जो उनके मन में आता है।
ताजा मामला राष्ट्रपति चुनाव का है, जिसके सहारे ममता न केवल अपने मन के व्यक्ति को महामहिम बनाना चाहती हैं, बल्कि भाजपा को यह भी बताना और दिखाना चाहती हैं कि अगले लोक सभा चुनाव यानी 2024 में वह भाजपा को कड़ी टक्कर देने के लिए पूरी तरह तैयार हैं, जिसकी शुरु आत ममता ने 15 जून को दिल्ली में बुलाई गई तमाम पार्टयिों की बैठक से कर दी। राष्ट्रपति चुनाव को लेकर विपक्ष की इस पहली बैठक में अनेक नामों पर चर्चा और विचार-विमर्श तो अवश्य हुआ, लेकिन अभी तक जो नतीजा निकला उसे संक्षिप्त में कहें तो यही कहा जा सकता है कि विपक्ष का बिखराव या विपक्ष में बिखराव जिसका पूरा का पूरा लाभ भाजपा को मिलता दिख रहा है।
ममता ने बैठक की और करीबन डेढ़ दर्जन दलों के नेताओं को एकत्रित करने में भी सफल रहीं, लेकिन बैठक में जिन-जिन नामों पर चर्चा हुई और अलग-अलग दलों के नेताओं ने भिन्न-भिन्न नाम सुझाए अब इनमें से विपक्ष में किस नाम पर सहमति बन पाती है, यह तो कुछ समय बाद ही ज्ञात होगा, पर इतना जरूर है कि इस बैठक से भाजपा को यह अवश्य समझ में आ गया कि विपक्ष में बिखराव है, जिसका लाभ उसे अपने मनपसंद के व्यक्ति को महामहिम बनाने में अवश्य मिलेगा।
विशेषज्ञों की यह भी राय है कि विपक्ष की यह बैठक ममता की जल्दबाजी का नतीजा है, बेहतर होता कि ममता यह बैठक तब बुलातीं जब केंद्र यानी भाजपा ने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के नाम का ऐलान कर दिया होता। ऐसे में लग रहा है कि भाजपा ने अभी पत्ते हाथ में लिए भी नहीं और विपक्ष ने अपने सारे पत्ते खोल दिए। मोटे तौर पर कहें तो देश का अगला राष्ट्रपति वही बनेगा, जिसे भाजपा अथवा मोदी चाहेंगे, लिहाजा ममता को थोड़ा इंतजार करना चाहिए था। ममता की तुलना में राजनीति के मैदान में नये होने के बावजूद दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने समझदारी दिखाते हुए उक्त बैठक से यह कहते हुए दूरी बनाई कि इस मुद्दे पर उनकी पार्टी तब ही कुछ बोलेगी, जब जान जाएगी कि भाजपा किसे राष्ट्रपति बनाना चाहती है। दुल्हन मिली नहीं और शादी का दिन ठीक करने की नीति के खिलाफ केवल आम आदमी पार्टी ही नहीं, बल्कि तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) और बीजू जनता दल (बीजद) भी दिखीं, तभी तो इन तीनों दलों का कोई भी नुमाइंदा बैठक में नहीं पहुंचा। इस अहम बैठक में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम, राष्ट्रीय जनता दल, शिवसेना, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भाकपा-एमएल, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, जनता दल (सेक्युलर), आरएसपी, आईयूएएमएल, राष्ट्रीय लोकदल और झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शामिल हुए लेकिन जितने दल, उतने लोग और उतने ही नामों पर चर्चा से विपक्ष की ताकत नहीं कमजोरी ही झलकी।
ध्यान रहे कि वर्ष 2012 में जब केंद्र में संप्रग की सरकार थी तब भी ममता ने कांग्रेस के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के खिलाफ समाजवादी पार्टी (सपा) के तत्कालीन मुखिया मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर मोर्चा खोला था और लखनऊ में साझा संवाददाता सम्मेलन किया था, लेकिन ममता के कोलकाता लौटते ही मुलायम ने पाला बदलते हुए ममता को धीरे से जोर का झटका दिया था और अंतत: कांग्रेस यानी केंद्र सरकार के उम्मीदवार के पक्ष में गए। कहीं और कुछ इस बार भी ऐसा ही न हो और ममता पर यह कहावत सटीक न बैठ जाए कि चौबे जी चले थे छब्बे बनने और दूबे बनकर लौटे।
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