सामयिक : शैतानों के पैरोकार कौन?
जो लोग सात मार्च, 2006 से पहले काशी के संकटमोचन हनुमान मंदिर गए हैं, उन्हें याद होगी संकटमोचन की शामें। जगह-जगह बैठे परिवारों के झुंड। अपने बच्चों या परिजनों के जन्मदिन मनाते लोग।
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या हनुमान जी के आशीर्वाद की छतछ्राया में शादी-विवाह जैसे आयोजन संपन्न करते लोग। संकटमोचन मंदिर परिसर की हर शाम चहल-पहल भरी होती थी, लेकिन यह तो मंगलवार का दिन था।
उत्तर भारत में मंगलवार को भगवान बजरंगबली का विशेष दिन माना जाता है। इस दिन तो लोग खासतौर पर सुबह से लेकर देर रात तक जब भी मौका मिलता है, बजरंगबली के दरबार में जाकर उनके दर्शन करते हैं, प्रसाद चढ़ाते हैं, आशीर्वाद लेते हैं। यानी बहुत भीड़ होती है हनुमान मंदिरों में। फिर काशी का संकटमोचन मंदिर का तो कहना ही क्या? यहां तो मंगलवार को लोग काशी से ही नहीं, देश के कोने-कोने से हनुमान जी से अपने संकट दूर करने की प्रार्थना लेकर आते हैं। हनुमान भक्तों की इसी भीड़ को निशाना बनाने के उद्देश्य से सात मार्च, 2006 की शाम 6.15 बजे शैतानों ने संत तुलसीदास द्वारा स्थापित इस मंदिर में विस्फोट करने की साजिश रची, जिसमें सात लोग मारे गए और 26 लोग घायल हुए। निशाना सिर्फ संकटमोचन मंदिर को ही नहीं बनाया गया। 15 मिनट बाद ही दशामेघ घाट थाना क्षेत्र में भी एक कुकर बम पाया गया। यदि इसमें विस्फोट हो जाता तो दो सौ मीटर तक चारों ओर तबाही मच सकती थी, लेकिन पुलिस एवं स्थानीय लोगों की सतर्कता से यह तबाही रोक ली गई थी, लेकिन वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन पर यह तबाही नहीं रोकी जा सकी।
शाम 6.35 बजे वहां प्रथम श्रेणी विश्राम कक्ष के सामने हुए विस्फोट में 11 लोग मारे गए और 50 से ज्यादा लोग घायल हुए। यानी 20 मिनट के अंदर धर्मनगरी काशी में हुए दो शक्तिशाली धमाकों से पूरा वाराणसी शहर दहल उठा था, और पूरा देश सिहर गया था। इस घटना के करीब 16 साल बाद इस मामले में सजा सुनाते हुए गाजियाबाद के जिला एवं सत्र न्यायाधीश जितेंद्र कुमार सिन्हा ने कहा कि इन विस्फोटों को अंजाम देनेवाले वलीउल्लाह का अपराध विरस से विरलतम श्रेणी का है। न्याय व्यवस्था पर भरोसा कायम रखने के लिए फांसी की सजा जरूरी है। वारदात का समय होली का था, जिस समय काफी भीड़ रहती है। घटनास्थल संकटमोचन मंदिर था, जिसमें प्रतिदिन काफी भीड़ रहती है। शादी-विवाह का भी समय था। इस तरह के विस्फोट का तरीका कहीं से भी अभियुक्त के प्रति हल्की परिस्थिति पैदा नहीं करता। इन परिस्थितियों में अभियुक्त किसी भी तरह से राहत के योग्य नहीं है। इसलिए वलीउल्लाह को तब तक फांसी पर लटकाया जाए, जब तक उसकी मृत्यु न हो जाए। धन्य हैं इस प्रकार का फैसला देनेवाले जज जितेंद्र कुमार सिन्हा, और धन्य है हमारी न्यायपालिका, जो वलीउल्लाह से लेकर अजमल कसाब, याकूब मेमन और अफजल गुरु जैसे न जाने कितने शैतानों को उनके किए की उचित सजा सुना चुकी है, लेकिन क्या यह जिम्मेदारी सिर्फ जजों और न्यायपालिका की ही है? हमारे समाज की बिल्कुल नहीं है, जो ऐसे लोगों को चुनकर विधानसभाओं और लोक सभा में भेजता है, जो इन शैतानों के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं!
वलीउल्लाह का ही मामला लें। 2012 में सत्तारूढ़ होते ही उत्तर प्रदेश की तत्कालीन अखिलेश सरकार ने वलीउल्लाह को बचाने की कोशिशें शुरू कर दी थीं। जैसे उत्तर प्रदेश की जनता ने उन्हें भारी बहुमत से चुनकर इसीलिए भेजा हो! अखिलेश सरकार ने सत्ता में आते ही 2006 के वाराणसी विस्फोटों के संबंध में वाराणसी जिला प्रशासन को चिट्ठी लिखकर 13 बिंदुओं पर जानकारी मांगी थी। अखिलेश सरकार का इरादा इन जानकारियों के आधार पर इन विस्फोटों के आरोपी आतंकियों को राहत पहुंचाने का था, लेकिन सरकार के इस कुत्सित इरादे की भनक लगते ही वाराणसी के नित्यानंद चौबे एवं राकेश श्रीवास्तव ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनिहत याचिका दायर कर दी। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति आर.के.अग्रवाल एवं न्यायमूर्ति आर.एस.मौर्य की पीठ ने काफी सख्त टिप्पणी करते हुए सरकार के चेहरे से नकाब उतार दिया था। पीठ ने सरकार से सवाल किया कि जब कोर्ट में मुकदमा चल रहा है, तो सरकार इसे वापस क्यों लेना चाहती है?
न्यायमूर्तिद्वय ने सरकार को फटकारते हुए कहा कि आज आप आतंकियों को रिहा कर रहे हैं, कल आप उन्हें पद्मभूषण भी दे सकते हैं। न्यायमूर्तिद्वय की इस सख्त टिप्पणी के बाद ही सरकार इस मामले में चुप बैठी। आज वलीउल्लाह को फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को अपनी गलती का अहसास न हो, लेकिन उन्हें चुनकर भेजने वाली जनता को तो अपनी गलती का अहसास तो होना ही चाहिए। क्योंकि वाराणसी विस्फोटों में मारे गए 18 लोग और घायल हुए 76 लोग तो उन्हीं के बीच के हैं ना, लेकिन ‘हम भारत के लोग’ बड़े भुलक्कड़ हैं। भुलक्कड़ न होते तो 12 मार्च, 1993 को मुंबई में हुए सिलसिलेवार विस्फोटकांड में वर्षो बाद फांसी के तख्ते तक पहुंच सके एकमात्र दोषी याकूब मेमन की शवयात्रा में मुंबई के मरीन लाइन्स पर हजारों लोगों की भीड़ जमा न होती।
इस विस्फोटकांड में भी 257 लोग मारे गए थे और 713 घायल हुए थे। भुलक्कड़ न होते तो हमारे-आपके बच्चे दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में हमारी संसद भवन के परिसर में घुसकर विस्फोट कराने की साजिश रचने वाले अफजल गुरु के लिए, ‘अफजल हम शर्मिदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं’ जैसे नारे न लगाते। और हम भारतवासी भुलक्कड़ न होते तो आज भी शहर-शहर, जगह-जगह मुट्ठी भर उपद्रवी जुमे की नमाज के बाद सड़क पर उतरकर निजी और सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने एवं खुलेआम उत्पात मचाने की हिम्मत न जुटा पाते। हमें अपनी भुलक्कड़पन की आदत को तिलांजलि देकर गंभीरतापूर्वक सोचना होगा कि इन शैतानों और उत्पातियों के पैरोकार कौन हैं?
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