सरोकार : आखिर, विधवाएं मुक्त हो ही गई वर्जनाओं से
पिछले दिनों एक सुखद खबर आई। महाराष्ट्र में विधवा की चूड़ियां तोड़ने, सिंदूर पोंछने और मंगलसूत्र निकालने की प्रथा खत्म कर दी गई है।
सरोकार : आखिर, विधवाएं मुक्त हो ही गई वर्जनाओं से |
कोल्हापुर जिले की हेरवाड ग्राम पंचायत में विधवाओं की यह अमानवीय प्रथा खत्म करने का प्रस्ताव रखा गया था। इस प्रस्ताव के अनुसार अब किसी महिला के पति की मृत्यु होने पर उसके अंतिम संस्कार के बाद उस महिला की चूड़ियां तोड़ने, माथे से सिंदूर पोंछने और मंगलसूत्र निकालने की प्रथा नहीं निभाई जाएंगी।
यह अच्छी पहल है। इस तरह की विद्रूप सामाजिक मान्यताएं बहुत पहले टूट जानी चाहिए थीं। महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले का स्वागत देश के हर वर्ग की महिलाओं और लगभग सभी महिला संगठनों द्वारा किया गया है। यह महिलाओं को समानता देने वाला कदम है। जहां भी ऐसी कुप्रथाएं सांस ले रही हैं, वहां हेरवाड गांव के इस मॉडल को पूरी तत्परता और मुस्तैदी से लागू किए जाने की जरूरत है।
विधवा रस्म अदायगी के प्रपंच को सिरे से समाप्त किया जाना चाहिए। इन रूढ़ियों में दबकर स्त्री के अपने व्यक्तित्व के कुंठित हो जाने के अनेकों उदाहरण हमने देखे हैं। भीतर की इस उमस और घुटन से बचने के लिए जब-जब स्त्री रूपी यह प्रतिमा बाहर आई तब-तब उसके चारों ओर निषेधों की ऊंची-ऊंची दीवारें खींच दी गई। पुरु ष की सारी कल्पित उदारता के बावजूद स्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता के दुष्परिणाम स्त्रियों को ही झेलने पड़े। कई बार आत्म-सजग युवतियों को रूढ़ और परंपरागत मान्यताओं की कसौटी पर कसी जाकर बहुत आसानी से कुलटा भी प्रमाणित किया गया। स्त्री की आत्मा-सजगता, कलात्मक अभिरु चि और व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास के विरोध में उसे निरंकुश और दकियानूसी प्रमाणित करने में समाज कभी भी पीछे नहीं रहा।
वस्तुत: छद्म प्रदशर्न के विभ्रम से मुक्त आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि भी यही कहती है कि सामाजिक लोक-लाज और भय के कारण पुरातन मान्यताओं को ढोया जाना गैरवाजिब है। अभी रूढ़ मूल्यांकन के प्रतिवाद का समय है। अर्थहीन विधि- निषेधों के लिए जीवन बर्बाद करने की अपेक्षा अपना जीवन अपने ढंग से जीने का समय आ गया है। आज की नारी में भलाई-बुराई के तयशुदा प्रतिमानों को ध्वस्त करने का साहस का होना बहुत जरूरी है। प्रबुद्ध और सजग समाज आखिर, स्वयं पहल करके क्यों नहीं ऐसी अपमानजनक मान्यताओं को खत्म करने की कोशिश करता है। स्त्रियां खुद फैसले लें कि उन्हें क्या पहनना है, क्या नहीं। किसी प्रकार का सामाजिक प्रत्यारोपण न हो तो बेहतर। यदि स्त्री अपने वैधव्य जीवन में श्रृंगार के प्रतिमानों को ओढ़ना या पहनना चाहती है, चाहे वो सामाजिक मान्यताओं के प्रतिकूल ही क्यों न हो, तो उसे उसके नैसर्गिक रूप में स्वीकारा जाना चाहिए।
वस्त्र और आभूषण के तैयारशुदा प्रतिमानों को स्वीकारने की बाध्यता कम से कम समाज तो खड़ा न करें। समाज पर्याप्त संयत ढंग से इस पर विचार करे। सामाजिक मान्यताओं की विकृतियों का पर्याप्त विसनीय और प्रभावशाली ढंग से अंकन हो और तत्पश्चात उनका निवारण भी हो। केवल सामाजिक मान्यताओं के लिए ऐसी कुरीतियों को ओढ़ लेने का कोई अर्थ नहीं होता। इनसे तल्खी के साथ निपटा जाना चाहिए। समाज को पुरातनता और विरूपताओं के घोंघे से बाहर आकर अपने को व्यापक संपर्क से जोड़ने का प्रयास करना चाहिए। तभी अपरिवर्तनीय को भी परिवर्तित किया जा सकेगा।
| Tweet |