द कश्मीर फाइल्स : कुतर्कों के बवंडर
हाल ही में प्रदर्शित एक फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ पर इन दिनों जोरदार बहस चल रही है।
![]() द कश्मीर फाइल्स : कुतर्कों के बवंडर |
एक तरफ इसे देखने वाले ज्यादातर आम नागरिक इस बात को लेकर क्षुब्ध हैं कि देश से जुड़ा इतना भयावह सच आज तक उनसे छुपाकर क्यों रखा गया, तो दूसरी ओर सेक्युलर जमात इस सच के सामने आ जाने से परेशान है। वह तरह-तरह के तर्क गढ़कर यह साबित करने की कोशिश कर रही है, मानो कुछ हुआ ही न हो। या जो हुआ भी, वह बहुत मामूली और सामान्य सी घटना रही हो।
इस घटना के घटित होने के पीछे कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसे दलों की कोई भूमिका ही न रही हो। यही नहीं, हर समस्या की तरह वे इस समस्या का भी ठीकरा भाजपा पर ही यह सवाल उठाकर फोड़ना चाहते हैं कि 19 जनवरी, 1990 अर्थात कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के बड़े पैमाने पर पलायन के समय केंद्र में किसकी सरकार थी? चूंकि उस समय केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के बाहरी समर्थन से विनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी, इसलिए इसका दोषी भी भाजपा को बताया जा रहा है। लेकिन यह तर्क देते समय इस सच्चाई को नकारा जा रहा है कि भाजपा के बाहरी समर्थन वाली वीपी सिंह की सरकार तो चंद दिनों पहले ही बनी थी जबकि कश्मीर समस्या की शुरुआत तो उससे कई दशक पहले फारुख अब्दुल्ला के पिता शेख अब्दुल्ला करके गए थे।
शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस ने तो आजादी से पहले 10 मई, 1946 को ही तत्कालीन डोगरा राजा हरि सिंह एवं कश्मीर की हिंदू जनता के विरुद्ध ‘कश्मीर छोड़ो’ का नारा बुलंद कर कश्मीर में उत्पात मचाना शुरू कर दिया था। आजादी के तुरंत बाद कश्मीर पर हुआ पाकिस्तानी कबायलियों का हमला तो शेख अब्दुल्ला के इसी प्रयास का विस्तार मात्र था। अफसोस तो इस बात का है कि जब शेख को उनके इस उत्पात के कारण महाराजा हरि सिंह ने गिरफ्तार करवा दिया, तो उनका मुकदमा लड़ने जो व्यक्ति दिल्ली से कश्मीर पहुंचा, वही भारत के आजाद होने के बाद देश का पहला प्रधानमंत्री बना यानी पंडित जवाहरलाल नेहरू। शेख अब्दुल्ला का 10 मई, 1946 को बोया बीज था, जो कांग्रेस की अनदेखी या मदद के सहारे करीब साढ़े चार दशक बाद 19 जनवरी, 1990 को कश्मीरी पंडितों के पलायन के साथ विस्फोटक रूप से सामने आया। सब लिखा-पढ़ा इतिहास है। इन घटनाओं के दस्तावेज यानी फाइलें मौजूद हैं।
अभी तक इन दस्तावेज को दबा कर रखा गया था क्योंकि किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी ऐसे विषय को छूने की। विषय कश्मीर का हो या गुजरात का। अब तक दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं, और किताबें भी लिखी जा चुकी हैं। लेकिन किसी फिल्मकार ने कश्मीरी पंडितों या गुजरात के उन हिंदुओं की व्यथा पर नजर डालने की कोशिश ही नहीं की, जिन्हें ट्रेन के डिब्बे में जलाकर मार दिया गया था। अब एक फिल्मकार ने जब ‘द कश्मीर फाइल्स’ के जरिए कश्मीरी पंडितों का दर्द दिखाने की कोशिश की है, तो उन्हें धमकियां मिल रही हैं। सरकार को उन्हें ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा देनी पड़ रही है। कश्मीर की सच्चाई सामने लाने वालों या उसे भारत का हिस्सा बताने वालों को नुकसान पहुंचाने की शुरु आत तो आजादी के तुरंत बाद ही हो गई थी।
क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि ‘एक देश में दो निशान, दो प्रधान और दो संविधान नहीं चलेंगे’ का नारा देने वाले जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की किन परिस्थितियों में मौत हुई थी? वह बिना परमिट के ही कश्मीर जाने की जिद पर अड़े हुए थे। वहां गए भी। लेकिन जिंदा लौटकर नहीं आ सके। तभी से ‘जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है’ का नारा लेकर जनसंघ और भाजपा चलते आ रहे हैं। इसी संकल्प के साथ वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 1993 में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष मुरलीमनोहर जोशी के साथ श्रीनगर के लालचौक पर तिरंगा फहराने गए थे। यह वही संकल्प था, जिसे पूरा करने के लिए गृह मंत्री अमित शाह को अनेक चुनौतियों के बावजूद संसद में अनुच्छेद 370 की समाप्ति की घोषणा करने में तीन मिनट भी नहीं लगे।
भाजपा को उम्मीद है कि वह अपने इसी संकल्प के सहारे एक दिन पाक अधिकृत कश्मीर को भी भारत का अभिन्न अंग बनते देख सकेगी। भाजपा के इस दृढ़ संकल्प के बावजूद 1990 के पलायन के लिए कटघरे में खड़ा किया जा रहा है वीपी सिंह को बाहर से समर्थन दे रही भाजपा को। जिस सरकार के गृह मंत्री ही कश्मीर के रहने वाले मुफ्ती मोहम्मद सईद थे, जिनकी बेटी अपहरणकर्ताओं के चंगुल से मुस्कुराते हुए बाहर आते देखी गई थी। शक तो यह पैदा होता है कि केंद्र में वीपी सिंह की कमजोर सरकार बनने के बाद उसे अस्थिर करने के लिए ही कश्मीरी पंडितों के पलायन का खेल रचा गया क्योंकि कांग्रेस जानती थी कि कश्मीर के मुद्दे पर संवेदनशील भाजपा ऐसी घटनाएं देख अपना समर्थन वापस ले लेगी और भाजपा सरकार गिर जाएगी। लेकिन ऐसा हो नहीं सका। केंद्र की गैर-कांग्रेस सरकार को अस्थिर करने की कांग्रेसी साजिश चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रित्वकाल में भी देखी जा चुकी है, जब चंद्रशेखर को खुद बाहर से समर्थन दे रही कांग्रेस ने जासूसी का एक बेतुका मुद्दा उठाकर अपना समर्थन वापस ले लिया था, और चंद्रशेखर सरकार गिर भी गई थी।
मसला कश्मीर का हो, या पूर्वोत्तर के राज्यों अथवा बंगाल का, कांग्रेस ने इन सीमावर्ती राज्यों में ऐसी-ऐसी गलतियां की हैं कि जिनका खमियाजा देश को कई पीढ़ियों तक भुगतना पड़ेगा। लेकिन देर से ही सही, इन गलतियों को सामने लाने और समझने की शुरुआत अब हो चुकी है। कश्मीर जैसी न जाने कितनी फाइलें अब खुलेंगी। उनका विश्लेषण होगा। ‘द कश्मीर फाइल्स’ पर आ रही आम जनता की प्रतिक्रिया देखकर यह भी लगने लगा है कि देश की जनता अतीत में हुई गलतियों को जानने की इच्छुक भी है ताकि इन गलतियों से सबक लेकर आगे बढ़ा जा सके।
| Tweet![]() |