वैश्विकी : रूस पर प्रतिबंधों का मकड़जाल

Last Updated 13 Mar 2022 01:28:02 AM IST

यूक्रेन संकट से जुड़ी एक मानवीय समस्या का समाधान होने से मोदी सरकार को बड़ी राहत हुई है।


वैश्विकी : रूस पर प्रतिबंधों का मकड़जाल

यूक्रेन में फंसे बीस हजार से अधिक छात्रों और नागरिकों की निकासी किसी भी देश के लिए एक बड़ी समस्या होती। अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत की साख का ही नतीजा है कि संघषर्रत दोनों देशों, रूस और यूक्रेन ने प्रधानमंत्री मोदी के अनुरोध और अपील पर अनुकूल रवैया अपनाया तथा ऐसी परिस्थितियां बनीं कि पड़ोसी देशों पोलैंड, हंगरी, स्लोवानिया आदि के जरिए लोगों की निकासी संभव हो पाई। यहां इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि आखिर, भारतीय छात्रों ने सरकार की ओर से बार-बार जारी सलाह पर ध्यान क्यों नहीं दिया। इसका कारण यह था कि भारत के मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश हासिल नहीं कर सकने वाले छात्रों के अभिभावक चालीस-पचास लाख रुपये देकर यूक्रेन के मेडिकल कॉलेजों में अपने बच्चों का प्रवेश कराते हैं। छात्रों और उनके अभिभावकों के लिए यह स्वाभाविक था कि वे जल्दबाजी में शैक्षिक भविष्य को दांव पर नहीं लगाएं। यह भी स्पष्ट नहीं था कि संघर्ष किस पैमाने का होगा। बदलते घटनाक्रम से जाहिर हुआ कि यह संघर्ष व्यापक है, और लंबे समय तक चलेगा।
यूक्रेन में अफगानिस्तान और सीरिया जैसे हालात बन रहे हैं। रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने यह खतरनाक जुआ क्यों खेला, यह एक पहेली है। क्या पुतिन ने यूक्रेन से रूस के लिए उत्पन्न खतरे का बढ़ा-चढ़ा कर मूल्यांकन किया। क्या रूस जारशाही की तरह  किसी विशाल साम्राज्य का सपना देख रहा है। पुतिन समकालीन विश्व में सबसे अधिक समय से सत्ता में बने रहने वाले नेता हैं। दो दशकों से अधिक समय से रूस की बागडोर संभालने वाले पुतिन दुनिया के विभिन्न देशों और नेताओं के साथ निरंतर संवाद में रहे हैं। पश्चिमी देशों की मीडिया पुतिन को दिमागी रूप से असंतुलित और पागल नेता के रूप में पेश कर रही है। पुतिन के बारे में यह धारणा कुछ वर्ष पूर्व से ही फैलाई जा रही है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत और हिलेरी क्लिंटन की हार के बाद से अमेरिकी मीडिया ने पुतिन और रूस के विरुद्ध सूचना युद्ध शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री मोदी के बारे में भी पश्चिमी मीडिया का ऐसा ही रवैया है। मोदी के लिए अनुकूल बात यह है कि पश्चिमी मीडिया के दुष्प्रचार के बावजूद सरकारी स्तर पर इन देशों के नेताओं के साथ उनके अच्छे संबंध हैं। इतना ही नहीं, भारत इन देशों का रणनीतिक साझेदार है। पुतिन की मुश्किल दोहरी है। वह पश्चिमी मीडिया के लिए हिटलर हैं तो वहां की सरकारों के लिए भी अपराधी जैसे हैं।

नागरिकों की निकासी के बाद मोदी सरकार को इससे भी बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा। पश्चिमी देशों की ओर से रूस के विरुद्ध लगाए गए प्रतिबंधों के जाल से मुक्त रहना भारतीय विदेश नीति के लिए बड़ी चुनौती होगी। यह प्रतिबंध बहुत व्यापक और सख्त है। आने वाले दिनों में प्रतिबंधों का जाल और सख्त होगा। अभी तक भारत के लिए मिसाइल विरोधी प्रणाली एस-400 को लेकर प्रतिबंधों से मुक्ति का सवाल था। अब यह रक्षा खरीदों के साथ भी सामान्य आर्थिक गतिविधियों के साथ भी जुड़ गया है। भारत की रक्षा प्रणालियों का पिचासी फीसद हिस्सा रूस पर आश्रित है। रूस से हथियारों का आयात भी कुल खरीद का करीब दो-तिहाई है। यह निर्भरता दशकों तक कायम रहने वाली है। भारत रूस के साथ अपने संबंधों को कमजोर करने का जोखिम नहीं उठा सकता। हथियारों के साथ ही भारत अपनी ऊर्जा सुरक्षा के लिए भी रूस को प्रमुख सहयोगी मानता है। वास्तव में भारत रूस के साइबेरिया में तेल एवं गैस क्षेत्र में भारी निवेश कर रहा है। रूस से जुड़े पूरे यूरेशिया क्षेत्र में भारत के आर्थिक और भू-रणनीतिक हित जुड़े हुए हैं।
भारत के लिए यूरेशिया हिंद-प्रशांत क्षेत्र की तरह ही महत्त्वपूर्ण है। भारत इन दोनों क्षेत्रों में अपने हितों की सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील है। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और महासभा में मतदान में उसने भाग नहीं लिया। रूस के प्रति मौन समर्थन करने के इजहार के साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने हाल में क्वाड की शिखर वार्ता में भी भाग लिया। विदेश नीति के कुछ जानकार इसे दो नावों पर सवारी करना कह सकते हैं, लेकिन वास्तव में आज की बहुध्रुवीय दुनिया में संतुलन पर आधारित ऐसी ही विदेश नीति अपरिहार्य है।

डॉ.दिलीप चौबे


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