सरोकार : महिलाओं को निकृष्ट न दिखाने की कोशिश
हाल में एक नामचीन अखबार ने सराहनीय पहल करते हुए रंगभेद के खिलाफ अनुकरणीय कदम उठाया।
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अखबार ने वैवाहिक विज्ञापनों में बेटियों के रंग से संबंधित विवरण यानी कॉम्प्लेक्सन-गोरी, गेहुआं, फेयर आदि जैसे शब्दों से परहेज कर लिया है। अब इन शब्दों के जरिए महिलाओं को वर्ण विभेद वाले खांचे में वर्गीकृत नहीं किया जा सकेगा। भूमंडलीकरण के बीच से गुजरते समाज ने पारंपरिक प्रतिमानों को नकार सौंदर्य मूल्यांकन की नई कसौटियां निर्धारित कीं।
एक बदले हुए यथार्थ में सुंदरता के मापदंड ने साधारण और सामान्य स्त्रियों को हाशिए पर धकेल दिया। पश्चिम से आए इन अविचारित आग्रहों ने सहजता को इस कदर क्षत-विक्षत किया कि देखते-ही-देखते कलाकारों की एक पूरी कौम वर्ण व्यंजना की चामत्कारिक रोशनी में डूब गई। फेयरनेस के बड़े-बड़े विज्ञापनों के जरिए धूसर या श्याम वर्ण की महिलाओं को दोयम दर्जे का बताया जाने लगा। और इस कल्पनीय असत्य को इतनी मजबूती के साथ सत्य बनाकर परोसा गया कि काली चमड़ी वाली महिलाओं की हीन ग्रंथियां नाटकीय रूप से कराह उठीं। पश्चिम के इस अघोषित षड्यंत्र ने महिलाओं की व्यथा कथा को नई सांकेतिकता के साथ प्रधान्य किया। सौंदर्य को बरतने की दृष्टि रातोंरात बदल गई। गोरी त्वचा को ही सुंदरता का पैमाना माना जाने लगा। शारीरिक उत्स, भाव-भंगिमा, सौंदर्याभिव्यक्ति, सौष्ठव संरचना दूर कहीं पार् में चली गई और गोरी चमड़ी को नई समृद्धि, दृष्टि और कलात्मक ऊंचाई दी जाने लगी।
आज अगर आसपास नजर डालें तो अखबारों से लेकर टीवी तक सौंदर्य वृद्धि वाले विज्ञापनों में सौंदर्यवर्धक प्रसाधनों की भरमार है। और विडंबना है कि इनके प्रसार में स्वयं स्रियां भी रत हैं। आज भी हमारे समाज में चमड़ी की इज्जत उसके रंग से आंकी जाती है। उसकी कीमत और उसका सम्मान उसके निखार से तय होता है। जिसकी चमड़ी पर ज्यादा निखार होता है, उसमें श्रेष्ठता का भाव उतना ही घर किए होता है। श्रेष्ठता का अहसास ही चमड़ी का वर्चस्व स्थापित करने में सहायक है। वर्चस्व बनाए रखने के लिए चमड़ियों का वर्गीकरण कर दिया गया है। सवाल है कि एक दूरदर्शी और विकसित समाज की आधारशिला वर्ण भेद के आधार पर रखी जा सकती है क्या। जीवनबोध को जितनी ईमानदारी के साथ चित्रित किया जाएगा, निर्मिंति उतनी ही पक्की और परंपरागत ढांचा उतना ही मजबूत होगा। एक प्रगतिशील समाज के लिए हमें ऐसे रंगभेद के खिलाफ खड़ा होना होगा। हर बेटी का विशिष्ट व्यक्तित्व और योग्यता होती है। उसे रंगभेद में बांटकर उसकी योग्यता और सौष्ठव पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता। मूल्यांकन की कसौटियां वर्ण नहीं प्रतिभा होनी चाहिए।
हालांकि एक अच्छी पहल करते हुए साउथ की ऐक्ट्रेसेस ने करोड़ों रु पये के फेयरनेस क्रीम के विज्ञापन करने से मना कर दिया है। अभिनेता और अभिनेत्रियां इसमें बेहतर भूमिका में सामने आ सकते हैं। उनकी उपस्थिति समाज को नये संकेत दे सकती हैं। सामाजिक और व्यक्तिगत, दोनों ही स्तरों पर जीवन की विसंगतियां डरावनी और दुखी न लगने लगें, इसके लिए समवेत और सचेत प्रयास जरूरी हैं। काली त्वचा वाली लड़कियां जिम्मेदारी या लाचारी नहीं, बल्कि हर परिवार के लिए गौरव है। दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बनना है, तो गर्व की अनुभूति के साथ हमें अपनी बेटियों को बिना किसी वर्ण भेद के अपनाना होगा।
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