मीडिया : सबका पसंदीदा युद्ध
एक भारतीय खबर चैनल का रिपोर्टर यूक्रेन की राजधानी ‘कीव’ की एक सड़क पर दौड़ लगा रहा है।
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वह छोटे कद का है कुछ मोटा भी है। वह चीखे जा रहा है: ये देखो टैंक ये देखो टैंक फिर चिल्लाने लगता है टैंक टैंक टैंक टैंक टैंक टैंक टैंक टैंक टैंक..कैमरामैन उससे कुछ दूरी पर है। वह अपने कैमरे से एक बियाबान सी सड़क को दिखाता है, जिस पर एकाध गाड़ी दौड़ती दिखती है, लेकिन टैंक नहीं दिखते काफी दूरी पर एकाध बड़ी सी गाड़ीनुमा कोई चीज कुछ तेजी से जाती दिखती है।
रिपोर्टर शायद उसे ही टैंक बता रहा है। इतनी देर में यह रिपोर्टर बुरी तरह हांफने लगा है। उसकी सांस उखड़ चुकी है। वह हांफे जा रहा है, लेकिन चीखता भी जा रहा है, लेकिन अब उसके मुंह से टूटे-फूटे शब्द निकल रहे हैं। हमें लगता है कि कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया? फिर वह अपने कैमरामैन को पास आने को कहता है और उससे पूछता है कि तुमने जाते हुए टैंकों को देखा कि नहीं? वो भी कद में रिपोर्टर जितना ठिगना है, लेकिन उससे कुछ अधिक मोटा है वह भी हांफ रहा है। वह ‘हां’ में मुंडी हिलाता है और रिपोर्ट का यह टुकड़ा ‘कट’ हो जाता है..हमें नहीं मालूम कि चैनल ने उसका बीमा कराया है कि नहीं? हमें नहीं मालूम कि खबर चैनल फील्ड रिपोटर्स या कैमरामैनों को नियुक्त करते वक्त रिस्क कवर देते हैं कि नहीं? हमें यह भी नहीं मालूम कि सरकार इस बारे में सचेत है कि नहीं? इतने पर भी अगर रिपोर्टर्स, कैमरामैन रिस्क लेते हैं तो हमें उनके दुस्साहस पर दया आ सकती है!
कहने की जरूरत नहीं कि यूक्रेन पर रूसी हमला हमारे कई चैनलों के लिए एक निराले अवसर की तरह आया है। इसीलिए हर चैनल अपने आप को इस ‘युद्ध को सबसे अच्छी तरह दिखाने वाला’, ‘युद्ध’ को उसके ‘जीरो ग्राउंड’ से दिखाने वाला’ बता रहा है। एक तो कहने लगा है कि अगर आपको इस युद्ध के सबसे अधिक विसनीय रिपोर्ताज देखने हों तो कहीं और न जाएं इसे ही देखें। हम इन दिनों एक युद्ध में दो-दो युद्ध देख रहे हैं।
एक युद्ध यूक्रेन की जमीन पर हो रहा है तो दूसरा युद्ध हमारे चैनलों में भी चल रहा है! चैनलों ने अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए और अपने को नंबर वन पर रखने के लिए, कई-कई रिपोर्टर्स और कैमरामैनों को इस ‘युद्ध’ को चौबीस बाई सात के हिसाब से कवर करने के लिए भेज दिया है, लेकिन कितनी सुरक्षा दी है किसी को नहीं मालूम! इसके बावजूद, इन रिपोर्टरों और कैमरामैनों के बीच भी एक युद्ध सा चलता दिखता है। एक चैनल किसी खास सीन को दिखाता दिखता है तो कुछ देर में दूसरा चैनल भी वैसे ही सीन दिखाने लगता है!
एक भारतीय छात्रों के डर को, उनकी तकलीफों को कवर करता है तो दूसरा भी वहीं पहुंच जाता है! एक विदेशी पत्रकार से कवर कराता है तो दूसरा भी किसी स्थानीय पत्रकार से रिपोर्ट कराता है। यों, सभी एक सुरक्षित दूरी से कवर करते हैं फिर भी एक दूसरे से स्पर्धा करते दिखते हैं कि देखो! हमीं इस युद्ध को सबसे सही तरीके से दिखा रहे हैं हमारा ही युद्ध को देखो! इस प्रकार, एक युद्ध रूस और यूक्रेन, अमेरिका और नाटो देश बना रहे हैं तो दूसरा युद्ध चैनलों का बनाया युद्ध है। जो हम तक पहुंचता है जिसे हम रोजाना देखते हैं और समझना चाहते हैं कि इसका भारत पर क्या असर हो सकता है और भारत का रुख क्या होना चाहिए?
जब तक हम रूसी और यूक्रेन के बीच की गोलाबारी को देखते हैं तब तक हम इस युद्ध को उनका युद्ध समझते हैं, लेकिन ज्यों ही हम सुनते हैं कि कल को चीन रूस की तरह हमारे साथ करे तो क्या होगा, तो हम सोचने को विवश हो जाते हैं कि अगर सचमुच ऐसा हुआ तो क्या होगा? क्या हम सबको भी इस नई विश्व व्यवस्था का दंड भोगना होगा?
यह पहली बार है कि युद्ध चल रहा है और दुनिया के शांतिवादी स्वर एकदम खामोश हैं। भारत के प्रति रूस की मित्रता का भाव, कमजोर दिखते अमेरिका के प्रति उपहास का भाव और अमेरिका की साम्राज्यवादी नीयत हमें रूस के इस हमले के प्रति किसी भी तरह की आलोचनात्मकता पैदा नहीं होने देते! इतना अवश्य हुआ है कि युद्ध के लाइव कवरेज व चरचाओं को देख सुन हर आदमी भी युद्ध विशेषज्ञ बन गया है। इस तरह यह युद्ध एक ‘पापूलर आइटम’ की तरह अनिवार्य हो उठा है। किसी ने कहा है कि हम सब एक अच्छा युद्ध चाहते हैं बशत्रे कि वो हमसे दूर हो! आज यही हो रहा है!
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