अमृत महोत्सव : नरसंहार की अनकही कहानी

Last Updated 26 Jan 2022 12:13:46 AM IST

जलियांवाला बाग, वो पार्क जहां 6 अप्रैल 1919 को ब्रिटिश सैनिकों ने कम-से-कम 379 निहत्थे प्रदर्शनकारियों को मार डाला, लेकिन 1922 में एक ऐसा भीषण नरसंहार हुआ था जिसका विवरण कई वर्षो तक गुप्त रखा गया।


अमृत महोत्सव : नरसंहार की अनकही कहानी

7 मार्च 1922 को गुजरात से दूर भील गांव में हुए नरसंहार के बारे में कोई नहीं जानता, जहां लगभग 1200 लोग मारे गए थे और उनके घर जला दिए गए थे। गुजरात में साबरकांठा जिले के पाल और दधवव गांवों में भी कई लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे। ब्रिटिश सरकार द्वारा किए गए एक और नरसंहार की कहानी अब सामने आई है। हम में से शायद बहुत कम लोगों ने मोतीलाल तेजावत का नाम सुना होगा। उन्होंने देशी शासकों और अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ लोगों को जगाया था।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात का मुख्यमंत्री रहते इस अनकही और भूली-बिसरी कहानी को दुनिया के सामने लाए थे। इतिहास के इस गौरवपूर्ण अध्याय से दुनिया अपरिचित थी, जिसे प्रधानमंत्री ने फिर से याद दिलाया। पलचितरया गांव में बना ‘शहीद स्मृति वन’ और ‘शहीद स्मारक’ इस भीषण घटना के गवाह के रूप में सबके सामने है। मोतीलाल तेजावत का जन्म 1886 में कोलियारी (अब झाडोल तहसील, उदयपुर जिला, राजस्थान में) में हुआ था। पांचवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए झडोल तहसील में काम करना शुरू किया, जहां उन्होंने स्थानीय भील लोगों पर ठाकुरों और अंग्रेजों द्वारा किए जाने वाले अत्याचार को देखा। इस घटना ने उन्हें अपने पद से इस्तीफा देने के लिए प्रेरित किया और उन्होंने उदयपुर शहर में एक दुकानदार के लिए काम करना शुरू कर दिया। नौकरी के कुछ ही दिनों बाद उन्हें एक व्यवसाय के लिए झडोल भेज दिया गया, जहां एक ठाकुर ने उन्हें उनके मालिक से जुड़ी निर्माण सामग्री सौंपने का आदेश दिया, जिसके लिए उन्होंने मना कर दिया। इसके बाद मोतीलाल को बेरहमी से पीटा गया और जेल में डाल दिया गया। वे इतने आहत और अपमानित हुए कि उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ने का फैसला किया। इसके बाद वह पूर्णकालिक रूप से राजनीति के क्षेत्र में समर्पित हो गए।

मोतीलाल तेजावत बिजोलिया आंदोलन से बहुत प्रेरित हुए और इसका उन पर बहुत प्रभाव हुआ। उन्हें किसी तरह आंदोलन के पर्चे मिल गए, जिसे उन्होंने भील बहुल इलाकों में लोगों को बांट दिया। उन्होंने भील गांवों में कई बैठकें आयोजित की जो बेहद सफल रही। इन समितियों में भील लोगों ने खुलकर अपनी शिकायतें और मांगें रखी। तेजावत ने भील गांव में धीरे-धीरे बढते जन आंदोलन को विश्वास दिलाया और उन्होंन कई लोगों की तरह गांधी जी के नेतृत्व में देश में हो रहे सबसे बड़े स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनकर अपने आंदोलन को भी उससे जोड़ दिया। वह ‘गांधी राज’ के बड़े समर्थक थे। वे अपने संदेश को फैलाने और बेगार और अनुचित करों के मुददों पर अपने लोगों को संगठित करने के लिए चित्ताैड़ के पास वार्षिक किसान मेला मातृ मुंडिया के लिए आदिवासी किसानों की एक बड़ी सभा करने में सक्षम हुए। मेले के बाद बड़ी संख्या में लोग महाराणा से मिलने के लिए उदयपुर की ओर कूच करने लगे, जो उनसे मिलने और उनकी समस्याओं एवं मांगें सुनने के लिए सहमत हो गए थे, लेकिन कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे थे जिन पर महाराणा ने कोई रियायत नहीं दी जैसे: आदिवासियों द्वारा जंगलों का उपयोग, बेगार और शिकार के लिए आदिवासी लोगों का समूह। कई सुधारवादी समाचार पत्रों ने एकी आंदोलन का समर्थन किया (एकी आंदोलन का उद्देश्य राज्यों और जागीरदारों द्वारा भीलों पर होने वाले शोषण का एकजुट विरोध करना था)। जाहिर तौर पर इस तरह का एक जन आंदोलन ब्रिटिश सेना के लिए खतरनाक था क्योंकि वे जलियांवाला बाग जैसी घटनाओं से परिचित थे। ऐसे आंदोलनों का पूर्ण दमन ही उनका एकमात्र लक्ष्य था। 7 मार्च, 1922 को दोपहर में, ब्रिटिश अधिकारी मेजर एच.जी. के नेतृत्व में अर्धसैनिक बल मेवाड़ भील कोर (एमबीसी) ने गोलीबारी की, जिसमें लगभग 1200 लोग मारे गए और कई गंभीर रूप से घायल हो गए। तेजावत किसी तरह भागने में सफल रहे और कुछ महीनों तक आंदोलन जारी रहा। इतने लोगों की निर्मम हत्या का अंग्रेजों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और 8 मई 1922 को भूला और बलोहिया के गांवों को ब्रिटिश सैनिकों ने घेर लिया। उन्होंने वहां रहने वाले लोगों पर गोलियां चलाई और घरों में आग लगा दी, जिसमें लगभग 1200 लोग मारे गए और 640 घर जला दिए गए।
1922 के अंत तक, एकी आंदोलन ध्वस्त हो गया था। पहले सार्वजनिक नरसंहारों के परिणामों का सामना करने के बाद अंग्रेजों ने देश के विभिन्न हिस्सों में इस क्रूर नरसंहार की खबर के प्रसार को रोकने के लिए पूरी ताकत झोंक दी। अंग्रेजों ने इस घटना को दबाने के लिए कई असाधारण कदम उठाए। तेजावत किसी तरह भागने में सफल रहे, लेकिन उनकी जांघों पर गोली लगने से वह गंभीर रूप से घायल हो गए। उनके कुछ समर्थक उन्हें बचाकर पहाड़ियों में ले गए जहां वे कई वर्षो तक रहे। फिर 1929 में महात्मा गांधी के अनुरोध पर आत्मसमर्पण किया। आत्मसमर्पण के बाद वे जेल में रहे और 1963 में उदयपुर में उनका निधन हो गया। इस बार गणतंत्र दिवस परेड के मौके पर गुजरात सरकार ने स्वतंत्रता आंदोलन में उन शहीदों के बलिदान को याद करते हुए श्रद्धांजलि दी है।

नीलेश शुक्ला


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