वैश्विकी : लोकतंत्र शिखर सम्मेलन में मोदी
भारत में लोकतंत्र की सेहत को लेकर हाल के दिनों में दुनिया में बौद्धिक, राजनीतिक और मीडिया हलकों में लगातार चर्चा होती रही है।
![]() लोकतंत्र शिखर सम्मेलन में मोदी |
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कई बार भारत में लोकतंत्र की सेहत और नागरिक स्वतंत्रता के हालात पर अपना पक्ष रखने का मौका मिला है। जी-7 देशों की बैठक में मोदी ने नागरिक स्वतंत्रताओं के बारे में अपना नजरिया पेश किया। शुक्रवार को संपन्न लोकतंत्र शिखर वार्ता में नरेन्द्र मोदी ने दुनिया को लोकतंत्र के प्रति भारत की प्रतिबद्धता का भरोसा दिलाया। यह विडंबना है कि अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के बौद्धिक संस्थान लगातार यह ऐलान करते रहे हैं कि मोदी के कार्यकाल में भारत का लोकतंत्र बीमार हो गया है। वहीं दूसरी ओर लोकतांत्रिक देशों के नेता मोदी को लोकतंत्र के प्रवक्ता के रूप में मान्यता दे रहे हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की ओर से आयोजित लोकतंत्र शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने लोकतंत्र की परिभाषा को विस्तार दिया। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र केवल जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा शासन प्रणाली नहीं है। लोकतंत्र जनता के साथ और जनता में अंतनिर्हित है। उन्होंने यह भी कहा कि लोकतंत्र के जरिये प्रभावी तरीके से जनकल्याण हो सकता है तथा हो भी रहा है।
प्रधानमंत्री मोदी ने लोकतंत्र शिखर सम्मेलन में अमेरिका पर भी कटाक्ष किया। उन्होंने अमेरिका का नाम लिये बगैर कहा कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष कैसे होते हैं, इस संबंध में वह अपने अनुभवों को साथा करना चाहता है। साथ ही उन्होंने कहा कि लोकतंत्र के बारे में अलग-अलग देश अपनी परिस्थितियों के अनुसार अलग रास्ता चुन सकते हैं। अपने हजारों साल के इतिहास की विरासत से भारत ने लोकतंत्र का सबक सीखा है। भारत में हजारों साल पहले भी लोकतंत्र था, आज भी है और आगे भी रहेगा। लोकतंत्र शिखर वार्ता में मोदी का उद्बोधन उस समय हुआ जब राजधानी दिल्ली के बाहर सिंघु, टीकरी और गाजीपुर बार्डर पर डेरा जमाए किसानों की घर वापसी शुरू हो गई है। किसान आंदोलन किसकी जीत है और किसकी हार, इस पर लंबे समय तक बहस चलती रहेगी। वास्तव में यह लोकतंत्र की जीत है। किसान आंदोलन के लंबे समय तक जारी रहने के पीछे घरेलू राजनीति और अंतरराष्ट्रीय शक्तियों की भूमिका रही है। पाकिस्तान और चीन की सरकार किसान आंदोलन के समाप्त होने से निराशा महसूस कर रहे होंगे। पश्चिमी देशों के भारत विरोधी गुटों के लिए भी यह एक झटका है। इन ताकतों की यह मंशा थी कि आंदोलन अनंत काल तक चलता रहे। इस आंदोलन के जरिये वे एक निर्वाचित सरकार की वैधता और निर्णय लेने की उसकी शक्ति को कम करना चाहते थे।
जो बाइडेन ने लोकतंत्र शिखर वार्ता का आयोजन कर एक राजनीतिक चाल भी चली। रूस और चीन को आमंत्रित नहीं किया गया। इससे राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की सेहत पर तो कोई असर नहीं हुआ, लेकिन चीन इससे आगबबूला हो गया। चीन की सरकार ने अमेरिकी लोकतंत्र का मजाक उड़ाते हुए दावा किया कि वास्तविक लोकतंत्र तो चीन में है। सम्मेलन में पाकिस्तान को भी न्योता दिया गया था, लेकिन उसने चीन के दबाव के सामने घुटने टेकते हुए सम्मेलन में भाग नहीं लिया। बाइडेन और पश्चिमी देशों के नेता चीन को लोकतंत्र के डंडे से पीटना चाहते हैं। इनका यह अभियान बीजिंग शीतकालीन ओलंपिक को लेकर भी जारी रहेगा। कनाडा पहला देश है जिसने हांगकांग, शिजियांग और ताइवान के बारे में चीन के रवैये का विरोध करते हुए इन खेलों के बहिष्कार की घोषणा की है। पूर्वी लद्दाख में चीन के आक्रामक तेवरों के बावजूद भारत ने इन खेलों के आयोजन के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया है। वास्तव में भारत चीन के संबंध में अलग-अलग दो रणनीति अपना रहा है। पूर्वी लद्दाख में जवाबी सैन्य तैनाती कर ऊसने चीन को साफ संदेश दिया है कि वह चीन की दादागिरी सहन नहीं करेगा, लेकिन इसके साथ ही वह बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में चीन की भूमिका को नकार भी नहीं रहा है। कोरोना के बाद अर्थव्यवस्था की बहाली में भी चीन के महत्त्व को भारत स्वीकार करता है। यही कारण है कि सैन्य तनाव के बावजूद वह भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया है।
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