बतंगड़ बेतुक : जय किसान, जय किसान, जय किसान
झल्लन बहुत दिन आया था पर चहकता हुआ आया था।
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हमने कहा, ‘क्या हुआ झल्लन इत्ते दिन से कहा था, कहीं अटक गया था या रास्ता भटक गया था? और ये तेरे चेहरे पर चमक कैसे फूट रही है, लगता है दुनिया की सारी खुशी तेरे ही ऊपर टूट रही है।’ झल्लन कुछ बोलने के बजाय मुस्कुराया, फिर उसने मुट्ठी बांधकर, हाथ उछालकर नारा लगाया, ‘जय किसान, जय ज..।’ शायद उसकी जुबान पर जवान शब्द आना चाहता था परंतु उसने अपनी जीभ वहीं दबा ली और बोला, ‘जय किसान, जय किसान, जय किसान।’ हमने कहा, ‘किसान के साथ जवान भी बोल देता तो तेरा क्या बिगड़ जाता, कम-अज-कम नारा तो पूरा हो जाता।’ वह बोला, ‘देखिए ददाजू, आज हम किसान की जीत का जश्न मना रहे हैं इसलिए इसमें हम न किसी जवान को ला रहे हैं न किसी और को मिला रहे हैं। हमारे अड़ियल-कड़ियल किसानों ने जीत का झंडा फहरा दिया है, सरकार को कमर से झुका दिया है और सरकार से जो वो पाना चाहते थे वह सब पा लिया है। किसानों की गुड्डी चढ़ गयी है, सरकार की हेकड़ी निकल गयी है, किसानों के साथ-साथ हम इसे लोकतंत्र की जीत मान रहे हैं इसलिए अपने नारे में सिर्फ जय किसान, जय किसान लगा रहे हैं।’
हमने झल्लन की ओर देखा और कहा, ‘तू इसलिए खुश है कि किसान जो चाहते थे वह उन्होंने पा लिया है या इसलिए खुश है कि सरकार ने सर झुका दिया है? रही लोकतंत्र की जीत की बात तो हमें नहीं लगता कि लोकतंत्र जीता है। हमें तो लगता है भीड़ तंत्र जीता है और धर्म तंत्र जीता है।’ झल्लन बोला, ‘ददाजू, काहे पिद्दी सी बात को इतना बड़ा कर देते हो और काहे सीधे सवाल को सर के बल खड़ा कर देते हो। काहे लोकतंत्र की बगल में भीड़ तंत्र और धर्म तंत्र को बिठा रहे हो, काहे एक सुलझे हुए मुद्दे में उलझन का नया मुद्दा उठा रहे हो।’
हमने कहा, ‘देख झल्लन, इस देश के नब्बे प्रतिशत कृषि विशेषज्ञ कृषि कानूनों के साथ थे, वे इन्हें अच्छा बता रहे थे और इनमें आम किसानों का हित दिखा रहे थे। हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब के संपन्न किसानों को इनमें अपना अहित दिखाई दिया, उन्होंने आंदोलन का रास्ता पकड़ लिया, राजधानी का हर रास्ता जाम कर दिया, आम जनता का आना-जाना और जीना मुहाल कर दिया। जो अनाप-शनाप कहना चाहा वह कहा, जो गलत-सलत करना चाहा वो किया और अंतत: कमजोर लोकतंत्र की कमजोर सरकार को झुका लिया और जो मांगें नहीं मानी जानी चाहिए थीं उन्हें भी मनवा लिया। यह लोकतंत्र नहीं बल्कि लोकतंत्र के नाम पर पनपे धन बल, जन बल और धर्म बल की जीत थी, जिद, अकड़, अक्खड़पन और हेकड़ी की जीत थी।’
झल्लन बोला, ‘ददाजू, पहेलियां मत बुझाओ जो कहना चाहते हो सीधे-सीधे बताओ।’ हमने कहा, ‘देख झल्लन, इस आंदोलन ने बता दिया है कि जिसके पास जन बल है, धन बल है, जाति बल है, धर्म बल है वह भारत की किसी भी कथित लोकतांत्रिक सरकार की नाक में नकेल डाल सकता है और उसे कहीं से कहीं तक धकेल सकता है।’ झल्लन बोला, ‘देखिए ददाजू, आप किसानों की जीत से खुश नहीं हो रहे हैं इसलिए अपना ये फालतू का रोना रो रहे हैं। लोकतंत्र में सबका अधिकार है कि कोई भी अपनी किसी भी बात को लेकर आंदोलन करे और सरकार को अपनी मांग मंगवाने के लिए मजबूर करे।’ हमने कहा, ‘मजबूर करने का मतलब यह नहीं होता कि संवाद की सारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं ताक पर रख दी जायें। जो सरकार आम जनता के बल पर बहुमत से चुनकर आयी है उसके सारे प्रस्ताव अनसुने कर दिये जायें, उससे कानून बनाने के अधिकार छीन लिये जायें। भई, अगर आपकी असहमति है तो जनता के बीच जाइए, जनता को अपनी बात समझाइए, चुनाव में सरकार को हराइए, अपनी सरकार बनाइए और फिर अपनी मर्जी के मुताबिक कानून बनाइए।’ झल्लन बोला, ‘देखिए ददाजू, चुनाव के चक्कर में पड़ना, चुनाव का इंतजार करना, जनता को समझाने में अपना दिल-दिमाग खपाना और जनता के वोट के बल पर बहुमत पाना, ये सब झंझट के काम हैं। किसान इस झंझट में क्यों पड़ते, उन्होंने तो अपनी ताकत के बल पर सरकार को झुका दिया, अपना काम करवा लिया।’ हमने कहा, ‘यही तो इस आंदोलन का डरावना संकेत है कि आगे कोई भी चुनी हुई सरकार न अपने मनमुताबिक फैसले ले पाएगी और न सहज ढंग से काम कर पाएगी। जो भी समूह सरकार से असहमत होगा वह धन, जाति और धर्म के नाम पर भीड़ जुटाएगा, सरकार के गले में हड्डी की तरह अटक जाएगा, सरकार से अपनी बात मनवाएगा और जीत का झंडा लेकर घर चला जाएगा।’
झल्लन बोला, ‘ददाजू, आपकी बात मान भी लें तब भी आपको यह तो बताना पड़ेगा कि आप किसानों के आंदोलन को जाति, धर्म से क्यों जोड़ रहे हैं और बिना निशाने के तीर क्यों छोड़ रहे हैं?’ हमने कहा, ‘हम जो कह रहे हैं सच कह रहे हैं पर इस बारे में हम बाद में बताएंगे, अगली बार जब तू आएगा तब समझाएंगे।’
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