सरोकार : हल्की टिप्पणियों से हिम्मत न हारें महिलाएं
आज नारी खुद को हर स्थिति में मिसफिट महसूस करती है क्योंकि उसका विकास समाज के स्वस्थ्य संदर्भ में न होकर अभी तक समस्या के रूप में ही हुआ है।
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किसी को हमेशा समस्या के रूप में ही देखते रहना यूं भी नॉर्मल नहीं रहने देता, क्योंकि वह देखना डॉक्टर का देखना है जहां व्यक्ति केवल विभिन्न बीमारियों को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर होता है। नारी कोई ऐसी थ्योरम या प्रॉब्लम नहीं है, जिसे चार आदमी बैठकर समाधान कर संतोष कर ले। यदि समाज के प्रति उसके कर्तव्य और अपेक्षाएं पुरुष के ही समान हैं तो फिर उसकी कोई समस्या के लिए उसकी अपनी समस्या नहीं है वरन समग्र जीवन की समस्या है।
इसे हाल की दो घटनाओं से समझा जा सकता है। पहली घटना जहां किसी राजनेता द्वारा महिला सांसदों का सेल्फी लेते हुए ये टिप्पणी करना कि ‘इनके साथ यह दुनिया की सबसे मुफीद जगह बन जाती है’ और दूसरी घटना; एक सूबे के मुख्यमंत्री का महिला विधायक को बला की खूबसूरत बताना। निश्चित ही दोनों घटनाएं सामाजिक संदर्भ में महिलाओं के प्रति एक खास नैरेटिव को दर्शाती है, जिसे बहुत सी वर्जनाओं और अतिरिक्त कुंठाओं को दरकिनार करके बड़ी हिम्मत के साथ कहा गया होगा।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में सामाजिक परिवेश का जो लैंडस्केप बुना हुआ है, निश्चित ही वहां उदात्त भावनाओं और औसत विधि निषेध के लिए कोई जगह नहीं बचती। कई कोणों से ऐसी घटनाएं लिंग आधारित संकीर्णताएं और उसके जीवन विरोधी स्वरूप को उद्घाटित करती है। इसके परस्पर विरोधी पक्ष हो सकते हैं। एक; जिसमें स्त्री के जवान शरीर के प्रति पुरुष वर्ग की आंखों में लोभ और वासना की चमक खूब गहरी होकर उभरती है और इसमें स्त्री की अस्मिता का विलोपीकरण साफ दिखता है। दूसरा; वर्जनाओं के टूटने से उपजे भाव प्रत्यारोपण का विज्ञान दिखता है। हो सकता है ये घटना पंक्ति बिगाड़कर अनुशासन तोड़ने जैसा हो जो इस स्वत:सिद्ध सच्चाई को टटोलती है कि स्त्रियां केवल उपभोग की वस्तु है। हालांकि संकीर्णता के चश्मे को उतारकर अगर थोड़े समय के लिए अलग रख दिया जाए तो दोनों घटनाओं में कुछ अनोखपन नहीं दिखता। आधुनिकता की प्लावनारी बाढ़ में ऐसा होना स्वाभाविक है। यह बदलाव के संघात और संघषर्ण का समय है, जहां उत्कट भावनाओं को पहले से कहीं ज्यादा खुले रूप में परोसा जा रहा है।
आज की नारी आत्मा सजग और प्रबुद्ध है। वह कृत्रिम दुलार और छद्म आधुनिकता की वास्तविकता को समझने में देर नहीं करती। वह अंतद्र्वद्व और सोच को बड़ी बेबाकी से उद्घाटित करना जानती है। वो संतुलन के अपने पैमाने पर पुरुषों को कस कर तौलती हैं। वो लोक तत्व की रक्षा भी करती हैं और वर्जनाओं को तोड़ अपनी अभिव्यक्ति को धार भी देती हैं। चंद कुंठित शब्दों से उसके विराट व्यक्तित्व को बौना नहीं किया जा सकता है। माना कि एक वर्ग में महिलाओं के प्रति पलने वाली नैतिक आस्था और विश्वास कुछ ढीले पड़े हैं पर आदर्शों को सीधे रूप में ना सही गुणसूत्र रूप में रखने की प्रवृत्ति अभी भी समाज के उस वर्ग में दिखती है। जीवन यथार्थ और मूल्य के संकट के परिप्रेक्ष्य में बदली हुई परिस्थितियों में इस विघटन और जटिलता को देखना और समझना होगा। और महिलाओं को धुंध रूप में ऐसे अपवादों को दरकिनार कर आगे बढ़ना होगा। उसका रास्ता रोशन है, मामूली दीवारें उसे मटमैला नहीं कर सकती।
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