सांप्रदायिक हिंसा : दंगाइयों पर सख्ती जरूरी

Last Updated 03 Dec 2021 03:01:17 AM IST

त्रिपुरा में हुई कथित हिंसा के मुद्दे पर महाराष्ट्र के मालेगांव, अमरावती, नांदेड़ सहित कई शहरों में रजा अकादमी के नेतृत्व में मुस्लिमों ने प्रदर्शन किया, प्रदर्शन के लिए शांतिपूर्ण जुलूस निकालने की बातें कही गई, लेकिन अमरावती में मालेगाव व नांदेड़ में जिस तरह की हिंसा हुई, उससे यह सिद्ध हो गया कि अल्पसंख्यकों के एक वर्ग को लगातार भड़काने का प्रयास किया जा रहा हैं।


सांप्रदायिक हिंसा : दंगाइयों पर सख्ती जरूरी

इतिहास गवाह है कि 2012 में इसी तरह आजाद मैदान पर रोहिंग्या के खिलाफ म्यांमार में हो रही हिंसा के विरुद्ध शांतिपूर्ण प्रदर्शन का ऐलान किया गया, लेकिन जब वहां पर बड़े पैमाने पर रजा अकादमी के आह्वान पर भीड़ जमा हुई तो कुछ देर बाद भीड़ हिंसक  हो गई। कई महिला पुलिसकर्मिंयों के साथ र्दुव्‍यवहार किया गया, कई दर्जन मीडिया और पुलिस की गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया था। आजाद मैदान के उस क्षेत्र को घंटों बंधक बनाए रखा गया। उस समय भी प्लानिंग यही थी कि दक्षिण मुंबई या मुंबई नहीं पूरे महाराष्ट्र को दंगे की आग में झोंक दिया जाए। इस घटना में ही नहीं इसके पहले भी रजा अकादमी अन्य मामलों में भी दंगाई संगठन के रूप में सामने आता रहा है। रजा अकादमी का गठन 1992-93 के दंगों की पृष्ठभूमि में हुआ। शुरुआती दौर से यह संगठन दंगे और बम कांड में संलिप्त मुसलमानों के परिजनों को बचाने व सहायता पहुंचाने का कार्य करता रहा।

रजा अकादमी के पूर्व महासचिव सैय्यद नूरी का कांग्रेस से निकटवर्ती संबंध रहा है। शायद यही कारण है कि चाहे भिवंडी का दंगा हो या तसलीमा नसरीन के खिलाफ किया गया उत्पात हो या आजाद मैदान में अमर जवान ज्योत को कलंकित करने का मामला रहा हो; रजा अकादमी की सक्रियता इन सब में सीधे-सीधे होने के बावजूद कभी भी कांग्रेस की सरकारों ने अकादमी के खिलाफ किसी भी प्रकार की कारवाई नहीं की। जब 2012 में आजाद मैदान में अमर जवान ज्योति को कलंकित किया गया था तब सभी देशभक्तों का खून खौल रहा था, कांग्रेसी सरकार की चुप्पी, देश के वफादारों को चुभ रही थी, महाराष्ट्र सहित  देश में असंतोष की हवा सब समझ रहे थे, इसलिए तो रजा अकादमी के इस कुकृत्य के विरोध में उसी आजाद मैदान पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने एक विशाल मोर्चे का आयोजन किया।

ठाकरे के इस मोर्चे से घबरा कर शिवसेना के कार्याध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने भी रजा अकादमी को प्रतिबंधित करने की मांग की थी पर आज जब वही उद्धव ठाकरे स्वयं जब मुख्यमंत्री हैं तब मालेगांव, अमरावती और नांदेड़ में हुई हिंसक कारवाई में रजा अकादमी की संलिप्तता के स्पष्ट प्रमाण होने के बावजूद किसी प्रकार की कारवाई करने के लिए तैयार नहीं है। 2012 में तत्कालीन मुंबई पुलिस आयुक्त अरुप पटनायक द्वारा रजा अकादमी के गुंडों के खिलाफ उचित कार्रवाई न करने से नाराज आज मुख्यमंत्री उस समय के शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे अरुप पटनायक को ‘फटनायक’ कहा करते थे।

ठाकरे का मानना था कि वे डर के मारे इस तरह की कारवाई नहीं कर रहे हैं। आज जब वे स्वयं मुख्यमंत्री हैं तो स्वाभाविकता से उनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि वे किस बात से डरे हुए हैं, क्या उन्हें अपनी सरकार के गिरने का भय है? जो ठाकरे सरकार उत्पाती, उपद्रवियों पर कार्रवाई से डरती रही वही जब अमरावती में इस घटना के दूसरे दिन भाजपर के नेतृत्व में प्रदर्शन हुआ, तब भाजपा के कार्यकर्ताओं पर लाठीचार्ज करने और पुलिसिया कारवाई करने का आदेश तुरंत दे डाला। दंगे की गंभीरता को समझते हुए महाराष्ट्र के विधानसभा में विपक्ष के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस अमरावती नहीं गए होते तो स्वाभाविक तौर पर अमरावती में जिस तरह से दंगाइयों ने उत्पात मचाया था और उसे प्रश्रय देने का काम राज्य सरकार की ओर से किया जा रहा था, उससे हिंसा की वारदात और बढ़ती और कारवाई सिर्फ  एक तरफा भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को झेलनी पड़ती। जो उद्धव ठाकरे किसी जमाने में हिंदुओं के सबसे बड़े हितैषी होने का दंभ भरते थे, उनका यह हिंदुत्व तो अब सेक्युलरवाद का शिकार चुका है और उसका परिणाम महाराष्ट्र को भोगना पड़ रहा है। त्रिपुरा में अफवाहों का जोर भी रहा। जिन पत्रकारों ने और एनजीओ ने अफवाहें फैलाई थी; उनमें से सौ से अधिक पत्रकारों एवं एनजीओ के ट्विटर हैंडल के खिलाफ यूएपीए के तहत मामला दर्ज हुआ। 1990 के दशक में इसी तरह से छिटपुट दंगे शुरू हुए, जिनकी अंतत: बाबरी विध्वंस के बाद 1992 के मुंबई दंगे में हुई।

उसी तरह से 6 जनवरी 1993 को सुनियोजित दंगे हुए। उन दंगों में ढाई सौ से अधिक हिंदुओं पर विशेष हमले किए गए थे। 6, 7 और 8 दिसम्बर तक सेना की मौजूदगी के बावजुद मुंबई की पुलिस मूकदर्शक बनी रही। तब शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे ने 8 दिसम्बर को अपने मुखपत्र ‘सामना’ के संपादकीय में लिखा था कि ‘हमने मरी मां का दूध नहीं पिया है। आत्मरक्षा करना हमारा सांविधानिक अधिकार है।’ यदि कांग्रेस शासित सरकार की पुलिस और सेना हिंदुओं को मरते-लड़ते देख कर मूकदर्शक बनी रहेगी तो हमको अपने आत्मरक्षण के लिए शस्त्र उठाने पडें़गे। उनकी इस संपादकीय के बाद प्रतिक्रिया हुई और उस प्रतिक्रिया के बाद भयंकर दंगे हुए। आज 30 वर्ष बाद जिस तरह से उद्धव ठाकरे के शासन में आतताइयों को बचाने का प्रेशर डाला जा रहा है, उससे महाराष्ट्र को सांप्रदायिकता के बारूद पर खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है। इसका परिणाम अंतत: महाराष्ट्र को ही नहीं पूरे देश को भुगतना पड़ेगा।

आज जब एक बार फिर हिंदुस्तान, चीन समेत तमाम आर्थिक रूप से उन्नत देशों की तुलना में बेहतर आर्थिक विकास कर रहा है, तब फिर से महाराष्ट्र को जातिवाद का शिकार बनाने का प्रयास किया जा रहा है। क्या उद्धव ठाकरे इस जातिवाद के विरुद्ध कारवाई करने में समर्थ हैं? जिस तरह से हिंदुओं को महाराष्ट्र में उत्पीड़ित किया जा रहा है उसका परिणाम दंगाइयों के मनोबल को बढ़ाना होगा और मुस्लिम दंगाइयों का मनोबल रजा अकादमी जैसे संगठन को संरक्षण देने से लगातार बढ़ता रहा तो उसका परिणाम न केवल महाराष्ट्र बल्कि पूरे भारत को आए दिनों झेलना पड़ेगा, इसमें कोई संदेह नहीं।
(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

आचार्य पवन त्रिपाठी


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