सरोकार : बराबरी की पैरोपकारी के बिना असंभव महिला सशक्तीकरण

Last Updated 05 Dec 2021 12:05:21 AM IST

जॉर्ज टाउन इंस्टीट्यूट ऑफ विमैन पीस एंड सिक्योरिटी और पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट, ओस्लो द्वारा प्रकाशित इस साल के महिला शांति और सुरक्षा सूचकांक में भारत 170 देशों में 147वें स्थान पर है।


सरोकार : बराबरी की पैरोपकारी के बिना असंभव महिला सशक्तीकरण

इस ताजा रिपोर्ट के गहरे निहितार्थ हैं। भारत में महिला अपराधों से जुड़े मामलों में न्याय देरी से मिलना कोई नई बात नहीं है। विडंबना है कि जिन अपराधों से निपटने और दुर्घटना उपरांत शांति दूतों की भूमिका में जिन महिला एजेंटों का सहारा लिया जाता है, उन्हें न्याय प्रदान करने वाली संस्थाओं और शांति वार्ता मोचरे से अनुचित रूप से दूर रखा जाना और उन्हें उचित प्रतिनिधित्व न देना दोहरी मानसिकता को दर्शाता है। न्याय पाता और न्याय प्रदाता, दोनों ही भूमिकाओं में महिलाओं की स्थिति संकटातीत है। अलग-थलग कर लैंगिक भेदभाव के जरिए उनका मानसिक शोषण ही किया जाता है।

इसे संयुक्त राष्ट्र एक ताजा रिपोर्ट से बेहतर रूप में समझा जा सकता है। इसके अनुसार 1992 और 2019 के बीच शांति वार्ता में महिलाओं का वार्ताकार के रूप में  13%, मध्यस्थ की भूमिका में 6% और  शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने वाली भूमिका में केवल 6% की ही भागीदारी रही। लैंगिक समानता वाले प्रावधानों के तहत शांति समझौतों में महिलाओं का प्रतिशत 1995 से लेकर अब तक केवल  22 ही हो पाया है। स्पष्ट है  कि शांति और न्याय प्रदाता की भूमिका में वे अब भी हाशिये पर हैं।

2000 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने सर्वसम्मति से संकल्प 1325 को अपनाया था जिसमें औपचारिक रूप से शांति बनाने, शांति बनाए रखने और शांति निर्माण में पहली बार महिलाओं की भूमिका को स्वीकारा गया और निर्णय लेने के पुरु ष प्रधानता वाले स्थानों पर महिलाओं के सार्थक समावेशीकरण को अनिवार्य बनाया गया। यह महिलाओं और लड़कियों पर सशस्त्र संघर्ष के असंगत प्रभाव को जोर शोर से उठाने, उन्हें लिंग आधारित हिंसा-विशेष रूप से यौन हिंसा से बचाने और नीति निर्माण और कार्यान्वयन में लिंग समानता को शामिल करने की प्रतिबद्धता के साथ शुरू किया गया था। लेकिन क्या भारत इस पायदान पर मजबूती से खड़ा दिखता है। उत्तर है शायद नहीं।

सवाल है  कि क्या वर्ग, जाति, नस्ल और पुरुषत्व के मुद्दों को संबोधित किए बिना केवल शांति अभियानों के जरिए महिलाओं की वकालत करने से काम चलेगा। लैंगिक भेदभाव और हिंसा के विभिन्न रूपों को समझने के लिए खास तरह के लिंग लेंस को अपनाने की जरूरत है। इसके अलावा, पुरु षों और बच्चों के साथ-साथ यौन, लिंग, जातीय और नस्लीय अल्पसंख्यकता को स्वीकार करते हुए इसकी शब्दावली को समावेशी बनाने की भी आवश्यकता है। केवल तभी न्याय की प्रक्रिया को महिलाओं के लिए   समावेशी भी बनाया जा सकता है।

न्याय, अविलंब पीड़िता के दरवाजे तक पहुंचे इसके सभी प्रयास करने होंगे। न्याय पाना हमारा सांविधानिक अधिकार है। भारत जैसे देश में तो महिलाओं के लिए त्वरित न्याय की और भी ज्यादा दरकार है क्योंकि दुष्कर्म और यौन हिंसा से जुड़े ज्यादातर मामले यहां सामाजिक आलोचना का विषय बन जाते हैं। ऐसे में उनके लिए  सम्मानजनक जीवन जीने की स्थिति बनाए रखना हमारी जिम्मेदारी बन जाती है। और यह केवल त्वरित, निष्पक्ष और अविलंब न्याय तथा महिलाओं की समुचित व समानुपातिक भागीदारी से ही संभव है।

डॉ. दर्शनी प्रिय


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