राग-रंग : बदली तो नहीं दर्शकों की आदत

Last Updated 05 Dec 2021 12:07:48 AM IST

पिछले दिनों कई नगरों के सांस्कृतिक आयोजनों में शामिल होने का अवसर मिला। वाराणसी और लखनऊ के कई समारोहों में साथ ही प्रयागराज और दिल्ली में भी।


राग-रंग : बदली तो नहीं दर्शकों की आदत

कोरोना संकट के कारण बंद हुए सांस्कृतिक समारोह न सिर्फ पिछले कुछ माह से शुरू हो गए हैं, बल्कि खूब होने लगे हैं। वाराणसी में तो शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरता हो, जब वहां कोई सांस्कृतिक आयोजन न हों। महत्त्वपूर्ण आयोजन हो रहे हैं, बड़े कलाकारों की प्रस्तुतियां हो रही हैं। दूसरे नगरों में भी कई सांस्कृतिक समारोह हो रहे हैं। लखनऊ में लगातार कार्यक्रम हो रहे हैं। वैसे यह सच है कि ज्यादातर आयोजन सरकारी विभाग या उनके द्वारा वित्तपोषित संस्थाएं कर रही हैं। वास्तव में कोरोना संकट के कारण आयोजन न हो पाने से अब बजट को खर्च कर लेने की हड़बड़ी भी है। उत्तर प्रदेश के संदर्भ में एक और बात है। यहां चुनाव होने वाले हैं, और आचार संहिता लगने वाली है। ऐसे में सरकारी आयोजनों को कर लेने की जल्दबाजी भी है।

लेकिन यहां चर्चा उन दर्शकों की करना चाहता हूं जो इन सांस्कृतिक आयोजनों में शामिल होते हैं। वाराणसी में जब जापान सरकार के सहयोग से रुद्राक्ष सभागार का निर्माण हुआ तो इसे लेकर सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़े लोगों के बीच दो तरह की चर्चाएं थीं। अव्वल तो इसके किराए को लेकर यह कहा जाता है कि इतना अधिक किराया दे पाना संस्थाओं के लिए मुश्किल है। दूसरी बात सभागार में सीटों को लेकर कही जाती है। एक हजार से अधिक लोगों को जुटा पाना आसान नहीं होता, खासकर तब जब नगर में कई बार एक साथ कई आयोजन होते हैं। वाराणसी में पिछले दिनों इस सभागार में जो आयोजन हुए वे ज्यादातर सरकारी आयोजन थे।

सरकारी संस्थाएं डेढ़-दो लाख रुपये किराए पर खर्च कर सकती हैं लेकिन उनके आयोजन में सभागार भी पूरा भरा रहा। हालांकि कई आयोजनों में पं. साजन मिश्र, राशिद खान, मालिनी अवस्थी,  कुमार विश्वास, मनोज तिवारी, मैथिली ठाकुर जैसे कलाकारों का आकषर्ण था और कई समारोहों में सम्मानित होने वाले कलाकारों और उनके परिवारीजनों की बड़ी संख्या में उपस्थिति। वैसे भी वाराणसी में संगीतप्रेमियों में हमेशा से एक उत्साह रहा है। यहां घाटों पर होने वाले संगीत कार्यक्रम हों या फिर कोरोना संकट से पूर्व आयोजित होने वाला संकटमोचन संगीत समारोह, उनमें बड़ी संख्या में संगीतप्रेमी जुटते रहे हैं। वे देर रात्रि तक इन कार्यक्रमों का आनंद लेते हैं। संकटमोचन संगीत समारोह तो छह रातों तक चलता रहा है। रात्रि में आठ बजे शुरू होकर सुबह छह-सात बजे खत्म होता है। कलाकारों की पूरी श्रृंखला रहती है, और मंदिर का परिसर उन्हें सुनने के लिए रात भर संगीतप्रेमियों से भरा रहता है, सुबह तक फरमाइशें चलती रहती हैं। कोरोना में बंद रहने के बाद अब जब वाराणसी में फिर से सांस्कृतिक समारोह शुरू हुए हैं, तो संगीतप्रेमियों का वही उत्साह दिखने लगा है।

लेकिन दूसरे नगरों में ऐसी स्थितियां नहीं हैं। कई नगरों में सांस्कृतिक आयोजनों में अभी दर्शकों का टोटा बना हुआ है। लखनऊ में कभी थोड़ी उपस्थिति हो जाती है और कभी काफी कम रहती है। प्रयागराज जैसे नगर में तो यह काफी कम है। इन नगरों में कोरोना के बाद दर्शक अभी प्रेक्षागृहों में लौटे नहीं हैं। कुछ लोगों का मानना है कि ऐसा कोरोना को लेकर भय के कारण है। लेकिन यह तर्क तब समझ में नहीं आता है, जब उन्हीं नगरों में बाजारों में भारी भीड़ दिखती है, विवाह समारोहों में पहले की तरह ही लोग जुटते दिखते हैं। मैंने लखनऊ में दीपावली पर बाजारों में ऐसी भीड़ देखी है कि वहां चलना भी मुश्किल हुआ जा रहा था लेकिन सभागारों में कई बार दर्शकों की काफी कमी रही। क्या कोरोना को लेकर भय को केवल सांस्कृतिक कार्यक्रमों से ही जोड़कर देखा जाना चाहिए?

वास्तव में एक बात और हुई है। कोरोना संकट के कारण सांस्कृतिक गतिविधियां ऑनलाइन होने लगी थीं। फेसबुक, यू-ट्यूब या सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों के जरिए सांस्कृतिक प्रस्तुतियां, गोष्ठियां या साक्षात्कार होने लगे थे। धीरे-धीरे जब स्थितियां सामान्य हुई तो भी सभागारों में आयोजन प्रतिबंधित थे। फिर कार्यक्रम मंचों पर हुए लेकिन उनका सीधा प्रसारण जाता रहा जिससे अधिक लोग जमा न हों। सीधे प्रसारण की यह व्यवस्था अभी भी जारी है, तब जबकि सभागारों में दर्शकों को बुलाया जाने लगा है। ऐसा लगता है कि बहुत सारे लोगों को इन सीधे प्रसारण की आदत लग गई है। उनके लिए यह अधिक सुविधाजनक है कि सभागारों में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनंद घर बैठे ही ले लिया जाए, सभागारों तक जाने की कौन जहमत करे!

बहुत सारे कार्यक्रमों के सीधे प्रसारण से जुड़ने वाले या उन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले दर्शकों की संख्या से पता चलता है कि बड़ी संख्या में लोग इन प्रसारणों से जुड़ते हैं। वे सांस्कृतिक कार्यक्रमों से जुड़ना तो चाहते हैं लेकिन सभागारों में जाने की जगह घर पर ही सुविधाजनक ढंग से इनका आनंद ले लेते हैं। वाराणसी में तो ऐसा नहीं हो रहा लेकिन जिन नगरों में सभागारों में लोग कम आ रहे हैं, क्या उनके बारे में यह माना जाना चाहिए कि वहां के दर्शकों की आदत कोरोना संकट से उभरे हालात ने बदल दी है!

आलोक पराड़कर


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