वैश्विकी : ईश्वर के नाम पर..
पाकिस्तान के सियालकोट में ईशनिंदा के नाम पर की गई नृशंस हत्या के मामले में श्रीलंका के एक नागरिक को अपनी जान गंवानी पड़ी।
पाकिस्तान के सियालकोट में ईशनिंदा के नाम पर की गई श्रीलंका के नागरिक की नृशंस हत्या |
पाकिस्तान में यह घटना कोई नई नहीं है। अंतर केवल इतना है कि मजहब की संकीर्ण व्यवस्था के आधार पर की गई हिंसा का शिकार एक पेशेवर विदेशी नागरिक बना है। खेलकूद की सामग्री बनाने वाली एक फैक्ट्री के मैनेजर प्रियंथा कुमारा की हत्या फैक्ट्री के उसके मातहत मजदूरों ने ही कर दी है। अर्धजीवित कुमारा को आग के हवाले कर दिया गया। उन्मादी भीड़ के लिए यह एक जश्न का माहौल था।
यह घटना इतनी बर्बर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली थी कि प्रधानमंत्री इमरान खान को भी इसकी निंदा करनी पड़ी। लेकिन राष्ट्रपति जिया-उल-हक के ‘निजाम-ए-मुस्तफा’ और दशकों बाद प्रधानमंत्री इमरान खान के ‘रियासत-ए-मदीना’ के मजहबी नारों की यह स्वाभाविक परिणति थी कि लोगों की धार्मिंक भावनाएं ऐसा भवायह रूप ले लें तथा सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे। घटना के लिए कट्टरपंथी इस्लामी संगठन ‘तहरीक-ए-लव्बैक’ (टीएलपी) को जिम्मेदार माना जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार इस संगठन को पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान के कुछ लोगों का समर्थन हासिल है।
प्रधानमंत्री इमरान खान तौहीन-ए-रिसालत (रसूल) के अपमान के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय कानून बनाने की मांग उठा चुके हैं। बजाय इसके कि वह अपने अवाम को मजहब की उदारवादी विचारधारा की ओर प्रेरित करें, वह देश को मजहबी उन्माद की अंधी सुरंग में ढकेल रहे हैं। ईशनिंदा को लेकर हिंसा की वकालत करना कुछ अन्य देशों में भी दिखाई देता है। यहां तक कि भारत में भी कुछ मुट्ठी भर लोग सड़कों पर ‘गुस्ताख-ए-रसूल की एक ही सजा सर तन से जुदा’ के नारे लगाते हुए यदा-कदा नजर आते हैं।
राजधानी दिल्ली में सिंघु बॉर्डर पर दलित युवक लखबीर सिंह की हत्या भी इसी मानसिकता का नतीजा थी। लेकिन भारत में इस तरह की घटनाएं अपवाद हैं तथा समाज इस तरह की घटनाओं की कठोर निंदा करता है। धार्मिंक नेता भी इस तरह की घटनाओं को पूरी तरह अस्वीकार करते हैं। लेकिन पाकिस्तान में हालात एकदम अलग हैं। ईशनिंदा और उसे लेकर मृत्युदंड की व्यवस्था देश की कानूनी व्यवस्था का हिस्सा है। रिसर्च संस्थान प्यू की एक रिपोर्ट है जिसके अनुसार विश्व में करीब 26 फीसद देशों में ऐसे ही कानून हैं जिनमें धार्मिक भावनाओं के ठेस पहुंचाए जाने पर सजा का प्रावधान है। ऐसे देशों में 70 फीसद मुस्लिम देश हैं।
पाकिस्तान के अलावा सऊदी अरब और ईरान में ईशनिंदा के खिलाफ मौत की सजा तक का प्रावधान है। भारत में धार्मिंक भावनाओं को आहत करने जैसे सामान्य कानून की तुलना में पाकिस्तान में अधिकतम दंड का प्रावधान है। इतना ही नहीं, बल्कि इस तरह के अमानवीय कानून को सभी राजनीतिक दलों और सत्ता प्रतिष्ठान का समर्थन हासिल है। पाकिस्तान में केवल एक छोटा सा वर्ग सिविल सोसाइटी ही है जो इसके खिलाफ आवाज बुलंद करता है, लेकिन उसकी आवाज नक्कारखाने में तूती साबित होती है। सियालकोट की घटना के संदर्भ में पाकिस्तानी पुलिस कुछ लोगों को गिरफ्तार करने की रस्म निभाएगी, लेकिन कुछ ही दिनों बाद सभी अभियुक्तों को अदालत से जमानत मिल जाएगी।
प्रधानमंत्री इमरान खान नया पाकिस्तान बनाने के नारे के साथ सत्ता में आए थे लेकिन नये पाकिस्तान की अपनी सोच को आगे बढ़ाने की बजाय उन्होंने मजहबी नारों को तरजीह दी। आज हालत यह है कि नया पाकिस्तान मध्ययुगीन बर्बरता के दौर में पहुंच गया है।
एक साथ आजादी हासिल करने वाले भारत और पाकिस्तान के हालात दुनिया के सामने हैं। उतार-चढ़ाव के बावजूद भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली सफलतापूर्वक काम कर रही है। समाज की विविधता और सांप्रदायिक सौहार्द भी विभिन्न दबावों के बावजूद कायम है। दूसरी ओर पाकिस्तान में लोकतांत्रिक प्रणाली पर हमेशा सैनिक तख्तापलट की तलवार लटकी रहती है। मजहबी उग्रवाद देश में सरकारी नीति का एक हिस्सा बन गया है, इसी का एक रूप सीमा पार आतंकवाद और कश्मीर में पृथकतावाद को बढ़ावा देना है। पाकिस्तान के शासकों के सामने यह अवसर है कि वे भारत से कुछ सीख लें। आजादी के 75वें वर्ष पर पाकिस्तान के सामने भारत जैसा रास्ता अपनाने का एक विकल्प है। पाकिस्तान के शासक इस दिशा में आगे बढ़ें तो पूरे दक्षिण एशिया में शांति, स्थायित्व और सहयोग की शुरुआत हो सकती है।
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