मीडिया : बहती बहसें, बरसती गालियां

Last Updated 05 Dec 2021 12:18:16 AM IST

घर से बाहर होने के कारण अपन उस दिन अपने स्मार्टफोन पर ही एक चैनल का प्रसिद्ध ‘बहस’ कार्यक्रम देखने लगे।


मीडिया : बहती बहसें, बरसती गालियां

संसद प्रसारित थी। लोक सभा तीनों कृषि कानूनों को वापस ले चुकी थी। राज्य सभा में मामला गरम था। इसलिए सुनने-देखने योग्य था। सदन में इस बात पर हंगामा था कि सरकार ने कानून वापस लेते वक्त भी वही किया जो इन कानूनों को पास करते वक्त किया था। न तब बहस होने दी थी, न अब होने दी थी और विपक्ष कसमसा रहा था क्योंकि बहस होती तो उसे स्कोर सेटिल करने का मौका मिलता। किसान नेता भी यही चाहते थे कि सरकार की छीछालेदर हो। लेकिन सरकार ने उनकी मनचाही नहीं होने दी।
मीडिया सरलीकरण का आदी है। इसी आदत के मारे रिपोर्टरों के पास किसानों से पूछने के लिए एक ही सवाल था कि वे अपना धरना कब उठा रहे हैं? लेकिन यह सवाल भी जब जमीन पर आया तो कुछ और बन गया। एक चैनल की रिपोर्टर धरना देते किसानों से पूछती नजर आई  कि अब तो कानून हट गए। आप कब हट रहे हैं? ऐसे हर सवाल के जवाब में किसान नेता कहते कि हमारी छह मांगें हैं, वो सब मन जाएंगी तो हट जाएंगे। रिपोर्टर बार-बार यही पूछती और बार-बार उसे यही जवाब मिलता। इसी प्रक्रिया में रिपोर्टर सवाल करने की जगह रिरियाहट की भाषा में कहने लगी कि ‘अब तो आप लोग हट जाइए’ तो इसे सुन किसान ऐंठने लगे। उनको लगा कि उनका न हटना तंग कर रहा है, तो तंग होने दो।
रिपोर्टर भी मजबूर थी। उसे जैसा पूछने को कहा गया वैसा पूछती रही और टका-सा जवाब पाती रही और अंत में इसी बार-बार के सवाल पर उसे एक किसान नेता से डांट भी खानी पडी़ कि तुम तो बिके हुए चैनल हो। सरकार के दलाल हो। जब रिपोर्टर कहती कि हम तो आपको भी दिखाते हैं, तो नेता कहता कि हम सब जानते हैं कि आप किसके चलाए चलते हो। खबर के साथ-साथ उसी चैनल में एक लाइव बहस भी जारी थी जिसमें दो किसान नेता बैठे थे। उनसे भी एंकर यही सवाल पूछ रहा था कि कानून हट गए, आप भी हट  जाइए। आम लोगों को कितनी परेशानी हो रही है। आपकी सबसे बड़ी मांग भी मान ली गई है। एमएसपी आदि के लिए कमेटी बन जाएगी अब तो उठ जाइए..। एक किसान प्रवक्ता कहे जाता था कि हमारे सात सौ किसान शहीद हुए हैं, उनको मुआवजा न मिल जाता, बिजली के बिल माफ नहीं हो जाते और पराली के केस वापस नहीं हो जाते तब तक हम नहीं जाने के क्योंकि इस सरकार का क्या भरोसा? संसद की खबर और इस बहस के साथ-साथ इसी चैनल का ‘ऐप’ भी  फ्री स्टाइल वाली भाषा में भाषायी-कुश्ती लाइव दिखा रहा था। हम एक ही वक्त में तीन-तीन बहसों से दो चार हो रहे थे।

‘ऐप’ के प्लेटफार्म पर एक से एक अशोभन विशेषणों, शापों और गालियों की बौछार जारी थी जिसे हम यहां न लिख सकते हैं, न उद्धृत। एक गाली देता तो दूसरा उसे कुछ और गंदी  गाली देता। एक किसान नेता को डकैत कहता तो दूसरा सरकार को डाकू। तीसरा कहता कि यही किसान नेता किसानों की मौतों का जिम्मेदार है, और उसे सरे आम चौराहे पर फांसी पर लटकाओ तो चौथा कहता कि अगले चुनाव में सरकार को ही लटकाएंगे। कुछ  लिख रहे थे कि ये किसान नहीं। इनका किसानी से क्या वास्ता? कुछ लिखे जा रहे थे कि ये अमीर किसान  हैं, तो कुछ लिख रहे थे कि ये अन्नदाता हैं। कुछ लिखे जा रहे थे ये देश विरोधी तत्व हैं, कुछ लिख रहे थे कि ये काहे के अन्नदाता? ये क्या किसी को मुफ्त में अन्न देते हैं? कुछ लिखे जा रहे थे कि सरकार पर किसानों का भरोसा नहीं। यह किसानों की दुश्मन है। सात सौ किसान शहीद हो गए लेकिन एक मिनट के लिए भी सरकार ने संसद में शोक व्यक्त नहीं किया..।
कहने की जरूरत नहीं कि यह मीडिया नहीं, ‘मीडिया का मुरब्बा’ था। यह एक खबर नहीं, तीन खबरों का फ्री स्टाइल कीमा था। यहां न विचार था, न तर्क थे। सिर्फ  कुछ अहंकारों की ‘अदाकारी’ थी जिसमें कोई हारते दिखना नहीं चाहता था। इसलिए हर बात में एक जिद थी। दूसरे के लिए ‘हेट’ थी और ‘बदले की भावना’ थी। कितना अच्छा होता कि चैनल सिर्फ  खबर देते और बहसें न कराते। चैनल बहसें कराते तो एक बार कराते। हर शाम न कराते और यह भी कराते तो ‘ऐप’ की चौबीस बाई सात की लाइव कुश्ती तो न  दिखाते।
बताइए, इतने प्रकार की खबरों का, बहसों का और गालियों का कोई क्या करे?

सुधीश पचौरी


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