बाबा साहेब : जातिवाद से मुक्ति के पैरोकार

Last Updated 06 Dec 2021 12:07:36 AM IST

भारतीय संविधान के निर्माता तथा भारत के प्रथम कानून एवं न्याय मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपना संपूर्ण जीवन छुआछूत और भेदभाव को समाप्त कर समरस समाज स्थापित करने, दलितोत्थान, भारत को सशक्त एवं समृद्ध बनाने में आहूत कर दिया।


बाबा साहेब : जातिवाद से मुक्ति के पैरोकार

उनका मानना था कि जातीय वैमनस्यता और अस्पृश्यता के कारण ही भारत का सर्वागीण विकास नहीं हो पा रहा।  

प्राचीन भारत में सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक समानता थी। बाद के काल-खंडों में जाति आधारित विषमता फैली और समाज का एक वर्ग वंचना का शिकार होता गया। आर्थिक रूप से कमजोर होता गया जिससे उसके जीवन में शिक्षा, सम्मान, आवास आदि मूलभूत आवश्यकताएं भी दुर्लभ हो गई। अत्यंत उपेक्षित वर्ग में जन्मे बाबा साहेब ने अपने कठोर परिश्रम से जो अर्जित किया वह वास्तव में प्रशंसा के योग्य है। अंग्रेजों के शासन काल में तीक्ष्ण बुद्धि के धनी बाबा साहेब का अमेरिका जाकर पढ़ाई करना उनके बुद्धि बल को दर्शाता है। पढ़ाई करने के पश्चात देश में आकर उन्होंने समाज के उपेक्षित वर्ग के उत्थान के लिए सार्थक पहल की और समाज में व्याप्त बुराइयों को समाप्त करने के लिए सकारात्मक प्रयास किया।

बाबा साहेब के सामाजिक समरसता के विचारों को आत्मसात करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना से लेकर आज तक भारतीय समाज में दलितों और वंचितों के उत्थान के लिए निरंतर कार्य कर रहा है। संघ देश के कोने-कोने में मानव-मात्र के कल्याण को अपना मंत्र मानकर कार्य कर रहा है। बाबा साहेब से संबद्ध एक रोचक संस्मरण का उल्लेख करना समीचीन होगा। 1939 में नागपुर में संघ का प्रशिक्षण वर्ग लगा हुआ था। बाबा साहेब उत्सुकतावश वहां बिन बुलाए ही पहुंच गए। संघ के प्रथम सर संघचालक डॉ. केशव बलिराम  हेडगेवार  वहां उपस्थित थे। दोपहर का भोजन दोनों ने साथ किया। उसके बाद बाबा साहेब ने स्वयंसेवकों से मिलने का आग्रह किया। बाबा साहेब देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि उस वर्ग में बच्चे, किसी की जाति पूछे बिना ही साथ में खेल रहे थे, एक साथ भोजन कर रहे थे और एक दूसरे के सहभागी भी हो रहे थे। बाबा साहेब इसी तरह के समरस समाज की तो कल्पना कर रहे थे।

कुछ वामपंथियों ने बाबा साहेब को हिंदू धर्म के विरोधी की तरह प्रचारित किया परंतु बाबा साहेब हिंदू धर्म के विरोधी नहीं थे। उन्होंने धर्म परिवर्तन करते समय भी उस धर्म को चुना जो भारतीय संस्कृति की ही गोद में पल्लवित-पुष्पित हुआ था। बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर उन्होंने वामियों, ईसाइयों और मुसलमानों को करारा जवाब दिया था। वास्तविकता तो यह है कि ईसाइयों, मुसलमानों और वामपंथियों से बाबा साहेब सख्त घृणा करते थे। वामपंथियों का संसदीय लोकतंत्र में विश्वास नहीं था। इसलिए डॉ. अंबेडकर सदैव इनके खिलाफ रहा करते थे। इस्लाम धर्म को लेकर भी बाबा साहेब के विचार बिल्कुल स्पष्ट थे। भारत विभाजन पर अपनी पुस्तक में उन्होंने लिखा है, ‘ऐसा कहा जाता है कि हिंदू धर्म तो लोगों को बांटता है, लेकिन इस्लाम लोगों को जोड़ता है। यह केवल आधा सच है।

इस्लाम जितनी कठोरता से जोड़ता है, उतनी ही कठोरता से बांटता भी है। इस्लाम मुस्लिम और गैर-मुस्लिम के बीच भेद करता है और यह अलगाववाद का भेदभाव है। इस्लाम का भाईचारा सार्वभौमिक भाईचारा नहीं है। इस्लाम में बंधुत्व का जो भाव है, उसका लाभ सिर्फ  उन्हें मिलता है, जो उसका हिस्सा हैं।’ राष्ट्र की संकल्पना के लिए उसकी संस्कृति एक होना अपरिहार्य है। इस विषय में बाबा साहेब के विचार स्पष्ट हैं। चाणक्य ने भी राष्ट्र की संकल्पना को इसी रूप में रेखांकित किया था। तदनंतर काल में शिवाजी महाराज ने  भी राष्ट्र की अवधारणा को इसी रूप में साकार करने का प्रयास किया और आधुनिक काल तक महात्मा ज्योतिबा फुले, शाहू महाराज सभी ने वही संकल्पना प्रस्तुत की, कि ‘यह पूरा समाज अपना है।’

यह भावना जब तक नहीं होगी तब तक वह सामथ्र्यवान राष्ट्र नहीं बन पाएगा। बाबा साहेब ने महापरिनिर्वाण के लगभग 15 दिन पूर्व काठमांडू की विश्व बौद्ध परिषद में कहा था कि विश्व में जो कोई पीड़ित, दलित, शोषित होंगे, उनके उत्थान के लिए जब तक भगवान बुद्ध का मार्ग उपलब्ध है, तब तक मार्क्‍स की शरण में जाने की जरूरत नहीं है। डॉ. अंबेडकर के विचार पूरे विश्व के लिए अनुकरणीय हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने डॉ. अंबेडकर के विचारों को आत्मसात कर समाज को आगे ले जाने में ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास’ के साथ काम किया है।
(लेखक भाजपा, बिहार के प्रांतीय उपाध्यक्ष और बिहार विधान परिषद् के सदस्य हैं)

प्रो. (डॉ) राजेन्द्र प्र. गुप्ता


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