वैश्विकी : तालिबानी शेर पर सवारी

Last Updated 17 Apr 2021 11:17:07 PM IST

अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद इस देश के क्या हालात बनेंगे, इसे लेकर पड़ोसी देशों सहित पूरी दुनिया में चिंता व्याप्त है।


वैश्विकी : तालिबानी शेर पर सवारी

अमेरिका, रूस, चीन, ईरान के साथ ही भारत अफगानिस्तान में प्रस्तावित समावेशी सरकार को लेकर आशावान होने के साथ-साथ आशंकित भी है। इन सभी देशों की चिंताएं अलग-अलग हैं। एक बात पर सब समान राय रखते हैं कि तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता पर वर्चस्व कायम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। इन देशों की राय के विपरीत पाकिस्तान अपने लिए जिहाद के शेर पर फिर सवारी करने का अवसर खोज रहा है।
अमेरिकी सेना की वापसी तालिबान, अलकायदा एवं इस्लामी स्टेट जैसे आतंकी गुटों के लिए अमेरिका की हार है। बीस साल पहले अमेरिका ने न्यूयार्क में ट्विन टावर पर हुए हमले का बदला लेने के लिए अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप किया था। अमेरिका अपने युद्ध उन्माद में केवल अफगानिस्तान तक ही नहीं रुका बाद में उसने इराक की धर्मनिरपेक्ष सद्दाम हुसैन सरकार को भी शक्ति प्रयोग करके हटा दिया। बाद के घटनाक्रम में अमेरिका ने लीबिया और सीरिया में धर्मनिरपेक्ष सरकारों के विरुद्ध उग्रवादी और जिहादी संगठनों को समर्थन दिया जिसमें हुई तबाही से यह क्षेत्र अभी तक जूझ रहा है।
वर्तमान में अफगानिस्तान में अशरफ गनी की सरकार कायम है। अमेरिका और रूस की अगुवाई में चल रहे शांति समाधान के तहत सत्ता में तालिबान को शामिल करने का प्रावधान है। इस समय आधे देश पर तालिबान की परोक्ष हुकूमत है। अल कायदा और इस्लामिक स्टेट भी कुछ स्थानों पर सक्रिय हैं और मौके की तलाश में हैं। अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा के प्रांतों में उज्बेक और ताजिक लड़ाकों का कब्जा है। अमेरिकी सेना की वापसी के बाद अफगानिस्तान में यदि शांति समाधान सफल नहीं हुआ तो गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो जाएगी। पाकिस्तान इस गृहयुद्ध में निश्चित रूप से तालिबान की मदद करेगा तथा देर-सबेर काबुल पर तालिबान का कब्जा हो जाएगा।

अफगानिस्तान के बारे में अमेरिका की चिंता यह है कि वहां अल कायदा दोबारा पांव नहीं जमाए। अल कायदा अमेरिका और पश्चिमी देशों को अपना मुख्य शत्रु मानता है। इस संगठन की ताकत बहुत घट गई है, लेकिन उसके दोबारा सक्रिय होने तथा अमेरिका को भविष्य में फिर निशाना बनाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। रूस की चिंता यह है कि अफगानिस्तान से पूर्व सोवियत संघ के देशों में जिहाद और इस्लामी उग्रवाद का प्रसार न हो। चीन की चिंता यह है कि उसके शिन्यांग प्रांत में आतंकियों की घुसपैठ न हो। ईरान अफगानिस्तान और पाकिस्तान में शिया अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर चिंतित है।
भारत के लिए अफगानिस्तान में तालिबान का मजबूत होना खतरे की घंटी है। जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के बाद राज्य में घरेलू आतंकवाद और उग्रवादी विचारधारा पर काबू पाया गया है। फिलहाल अंतरराष्ट्रीय दबाव में पाकिस्तान युद्धविराम करने पर राजी हुआ है, लेकिन आने वाले दिनों में यदि तालिबान अफगानिस्तान में सत्ता संभालता है तो खुफिया एजेंसी आईएसआई , मुजाहिद्दीनों का रुख कश्मीर की ओर मुड़ सकता है। भारत की विकासवादी विदेश नीति के लिए यह परीक्षा की घड़ी है। भारत ने अरबों रुपयों की धनराशि के जरिये अफगानिस्तान में पुनर्निमाण का काम किया है।
अफगानिस्तान में बहुत से ऐसे जातीय समूह और संगठन हैं जो भारत के प्रति अनुकूल राय रखते हैं। अशरफ गनी की सरकार भी मित्रवत है। करीब 25 वर्ष पहले जब तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया था उस समय भी वहां का प्रमुख संगठन नार्दन एलायंस और उसके नेता अहमद शाह मसूद भारत के समर्थन के बलबूते तालिबान को चुनौती देने में सफल रहा था। भविष्य में भारत अपने पुराने संपर्क सूत्रों का इस्तेमाल कर तालिबान की घेरेबंदी कर सकता है। इस संबंध में भारत और ईरान के हित एक जैसे हैं। दोनों देश मिलकर अफगानिस्तान में तालिबान के वर्चस्व को रोक सकते हैं। जहां तक पाकिस्तान का संबंध है, तालिबानी शेर पर सवारी उसके लिए अस्तित्व का संकट बन सकती है। हाल में लाहौर और अन्य शहरों में चरमपंथी इस्लामी संगठन ‘तहरीके लब्बैक पाकिस्तान’ का उत्पात उसके लिए आने वाले बुरे समय का द्योतक है।

डॉ. दिलीप चौबे


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