लोकू तू जल्दी मर जाएगा

Last Updated 17 Apr 2021 11:12:01 PM IST

लोकतंत्र उर्फ लोकू झल्लन का यार था और उनके बीच गहरा प्यार था। झल्लन को लोकू से आश्वासन मिला हुआ था कि वह जब चाहे उसके पास आये और अपनी जरूरत का जो ले जाना चाहे वो ले जाये।


लोकू तू जल्दी मर जाएगा

पर झल्लन अभी तक अपने इस दोस्त के दिये भरोसे पर ना कोई भरोसा कर पाया था और ना अभी तक उससे कुछ ले पाया था। सो झल्लन ने सोचा कि अपने दोस्त लोकू के पास चला जाये और उसका थोड़ा हाल-चाल लिया जाये।
तो जब झल्लन अपने दोस्त-रक्षक-संरक्षक लोकू के पास पहुंचा तो पता नहीं लग रहा था कि वह सो रहा था या जग रहा था। यह भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या किधर है, उसका सर इधर है या पैर इधर है। पेट पिचक रहा था, पीठ में रीढ़ नजर नहीं आ रही थी, उसकी सांस भी जैसे हंफ-हंफकर आ रही थी। लोकू के चेहरे पर कोई चेहरा भी नहीं बन रहा था और जो बन रहा था वह चेहरा ही नहीं लग रहा था, उसके हस्तानुपात और पादानुपात भी सम पर नहीं थे। लोकू जो चादर ओढ़े था वह भी फटी-झीनी हुई जा रही थी, लोकू की बेडौल देह को पूरी तरह ढक भी नहीं पा रही थी। झल्लन को थोड़ा अचंभा हुआ कि उसका यह यार लोकू चल रहा था तो आखिर कैसे चल रहा था, उसे लगा लोकू भीतर-ही-भीतर गल रहा था।
झल्लन ने लोकू को झकझोरकर जगाया तो वह एक आंख बंद किये और दूसरी आंख मिचमिचाते हुए उठ आया। झल्लन बोला, ‘यार लोकू, तू हमें बताए था कि तू हमें अपने निकट बुलवाएगा और हमसे हमारा दुख-सुख बतियाएगा। हम झल्लन तुझसे बतियाने अपने ठौर से तेरे ठौर तक चलकर तेरे पास आ रहे हैं और तू इधर फटी चदरिया ओढ़कर लेटा है और तुझे खर्राटे आ रहे हैं।’ लोकू ने झल्लन की ओर देखा तो उसकी एक आंख खुली तो दूसरी आंख थोड़ी झपक गयी, थोड़ी झुक गयी और वह बोला तो उसकी आवाज में थोड़ी शर्मिदगी भी भर गयी, ‘यार झल्लन, हम सोचे थे कि तेरे जैसे शरीफ, ईमानदार, मेहनतकश, संजीदा इंसान को अपना यार बनाएंगे, वक्त जरूरत तेरे काम आएंगे, तेरे दुख-दर्द में भागीदारी निभाएंगे और तेरे जैसों के लिए साफ-सुथरा सुरक्षित माहौल बनाएंगे। पर देख, हम कुछ नहीं कर पाये, यहां तक आते-आते अपना तेज-ताप सब गंवा आये।’

झल्लन बोला, ‘तेज-ताप छोड़, हमें तो ये बता तेरी टांगों को बीमारी क्या हुई, एक इतनी छोटी तो दूसरी इतनी लंबी क्यों हुई?’ लोकू बोला, ‘लंबी टांग वह टांग है जिसकी हर वक्त बेरहमी से खिंचाई होती रहती है, मूखरे-जाहिलों-धूतरे-लुच्चों-लफंगों की नेताई जमात मेरी इस टांग से लटकी रहती है, बस इसी से मेरी एक टांग लंबी तो दूसरी छोटी रह गयी है, इससे मेरी संतुलित चाल बिगड़ गयी है।’ झल्लन ने पूछा, ‘और तेरे हाथों के साथ क्या हुआ, इन्हें किस दुर्घटना ने जा छुआ?’ लोकू के चेहरे पर मायूसी उतर आयी, उसकी खुली आंख भर आयी, ‘मैं तो अपने दोनों हाथ सबके ऊपर समान रूप से रखना चाहता था, सबको आशीष देना चाहता था, सबका भला करना चाहता था, पर जो ताकतवर थे और जिनके पास धनबल था, जनबल था, दलबल था, जातिबल था, धर्मबल था उन्होंने मेरा रक्षक-संरक्षक हाथ खींचकर अपने सर पर रख लिया और अपनी-अपनी सत्ता चाहना के अनुरूप खींच-खींचकर लंबा कर दिया। मेरा जो हाथ सीधे-सरल, बेजाति-बेधर्म, बेसंगठन, अकेले-असहाय लोगों तक पहुंचने के लिए बढ़ता है अब वह अपनी छुटाई की वजह से बहुत छोटा पड़ता है।’ झल्लन बोला, ‘मुझे तो तेरी श्रवण शक्ति पर भी संदेह हो रहा है, लगता है जैसे तू एक कान से सुन रहा है।’ लोकू बोला, ‘जो चीख-चिल्ला सकते हैं, हर मंच पर दहाड़ सकते हैं, संसद से सड़क तक हल्ला मचा सकते हैं, नगाड़े बजा सकते हैं और नपुंसक मीडिया को अपना भोंपू बना सकते हैं, मेरे कान में सिर्फ उन्हीं का कर्णनाद घुस पाता है और दूसरा कान जो लोगों की आहों-कराहों और इनके पैरोकारों की सच्ची-खरी आवाजें सुनने के लिए था, वह बंद हो जाता है।’ झल्लन ने पूछा, ‘और तेरी आंख? सिर्फ एक ही खुली सी दिखती है और दूसरी बिल्कुल मिची सी रहती है।’
लोकू बोला, ‘भइया झल्लन, तुझे जो आंख खुली दिखती है वह सिर्फ चमक-ही-चमक देखती है, नगरों-महानगरों की भड़क देखती है, धनपतियों की धमक देखती है, नेताओं की नाजायज तरक्की और तड़क देखती है, भूपतियों की हनक देखती है, बुद्धि का खेल रचने वाले आडंबरी मीडिया की सनक देखती है, सितारों की गमक देखती है, तारिकाओं की लहक देखती है, और जो आंख कभी अंधेरे कोनों-अंतरों को नाप आती थी, मरते-गिरतों की जिंदगी में झांक आती थी, कमजोरों के आंसुओं से पिघल जाती थी, सच्चे किसानों और मजबूर मजूरों की आंखों में उम्मीदें टांक आती थी वह चमक और चकाचौंध के बीच दबकर भिंच गयी है।’ झल्लन बोला, ‘हम समझ लिये लोकू, तू ऐंचक-बेंचा अपंग हो गया है, अब कुछ नहीं कर पाएगा, ज्यादा चल भी नहीं पाएगा और यही हाल रहा तो तू जल्दी ही मर जाएगा।’

विभांशु दिव्याल


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