राजेंद्र सच्चर : धर्मनिरपेक्षता के प्रहरी

Last Updated 16 Feb 2021 12:21:03 AM IST

न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर की आत्मकथा ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो राजनैतिक, न्यायिक, नागरिक स्वतंत्रता से संबंधित घटनाओं पर आधारित है।


राजेंद्र सच्चर : धर्मनिरपेक्षता के प्रहरी

सच्चर का जन्म 1923 में संयुक्त भारत के लाहौर शहर में हुआ। पिता भीमसेन सच्चर गांधी के करीबी एवं कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में शुमार रहे हैं। लाहौर कॉलेज से 1943 में स्नातक की परीक्षा पास कर प्रखर समाजवादी कार्यकर्ता के रूप में राजेंद्र कार्य करना प्रारंभ करते हैं, और उस समय के सभी प्रगतिशील राष्ट्रभक्तों के संगठन ‘कांग्रेस समाजवादी पार्टी’ में शामिल हो जाते हैं। स्थापित नेता के पुत्र होने के नाते कांग्रेस पार्टी में पद, प्रतिष्ठा प्राप्त करना आसान था, लेकिन आदशर्वाद के उच्च उद्देश्यों के लिए समाजवादी आंदोलन में शामिल होना एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
1946 में कानूनी डिग्री प्राप्त कर वकालत करने की बजाय मजदूर संगठन में कार्य करना बेहतर माना।

गुलजारी लाल नंदा बॉम्बे प्रांत में श्रम मंत्री थे और उन्हीं के जरिए कारखानों में नियमित दौरा कर मजदूरों की समस्याओं का अध्ययन करते रहे। इसी बीच, सांप्रदायिक तनाव के चलते मजदूर आंदोलन भी विभाजित हो जाता है, और निराश होकर दिल्ली में पड़ाव बन जाता है। दिल्ली क्लॉथ मिल्स (डीसीएम) बाड़ा हिंदूराव में बड़ा औद्योगिक संस्थान है। इसमें मजदूर यूनियन के सचिव के नाते संगठन के काम का अच्छा अनुभव होता है। लाहौर प्रांत में भी समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं की एक लंबी फेहरिस्त तैयार हो जाती है, जिसमें मुंशी अहमद दीना, तिलक राज चड्ढा, प्रेम भसीन और सुरेंद्र मोहन आदि नेता शामिल हैं।
भारत-पाक विभाजन की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के कारण समूचा परिदृश्य बदल जाता है। दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों को बेवजह हिंसा का शिकार होना पड़ता है। बच्चे, बूढ़े और औरतें इस घृणा में सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। इंसानियत लगभग दफन हो चुकी है। इसी के दुष्प्रभाव का नतीजा है 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या। सुबह अपने साले प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर के पास लोदी गार्डन से बिड़ला हाउस की ओर मुड़कर हैरान हैं कि बिड़ला हाउस के मुख्य द्वार के ऊपर पं. नेहरू जनता के बड़े समूह को संबोधित कर रहे हैं। उनकी आंखों से निरंतर अश्रुधारा बह रही है। वे बापू को भी याद कर रहे हैं, और सांप्रदायिक एकता बनाए रखने के लिए भी लोगों का आह्वान कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेता जेपी, लोहिया, अशोक मेहता, अरुणा आसिफ अली आदि शरणार्थी शिविरों का निरंतर दौरा करते हैं। राहत सामग्री वितरित करते हैं, आपसी भाईचारा कायम रखने की अपील करते हैं। बंटवारा भी हो गया, आपसी भाईचारा भी भंग हो गया, बापू भी छिन गए। लगता है जैसे सभी समाजवादी कंगाल और अनाथ हो गए। कांग्रेस पार्टी से वैचारिक मतभेद तीव्र होने के कारण सभी प्रमुख नेता पार्टी छोड़कर समाजवादी पार्टी का निर्माण कार्य प्रारंभ करते हैं, जिसका पहला उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता एवं समाजवाद है।
इसी बीच पिता भीमसेन सच्चर पंजाब के मुख्यमंत्री चुन लिए जाते हैं, और एक सुबह चाय पर समझाने का प्रयास करते हैं कि राजनीति की बजाय इंश्योरेंस कंपनी का काम संभालना चाहिए। यद्यपि राजनीति करने की प्रबल इच्छा है तो मुझे मुख्यमंत्री पद से मुक्ति लेनी होगी, लेकिन समाजवादी आंदोलन से अलग होना मानसिक तौर पर राजेंद्र को कबूल नहीं है। इधर पिता भीमसेन सच्चर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हैं वहीं डॉ. लोहिया नेपाल की राजशाही के विरोध में नेपाली कांग्रेस नेताओं के समर्थन में नेपाली दूतावास के बाहर प्रदशर्न कर रहे हैं। राजेंद्र भी इसका हिस्सा बन जाते हैं। कनॉट प्लेस पुलिस लॉकअप में रात गुजरती है। अगले दिन सभी को तिहाड़ जेल भेज दिया जाता है, और समाजवादियों की आजाद भारत में पहली जेल यात्रा का कार्यक्रम प्रारंभ होता है। एक रोचक घटनाक्रम में प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा लोहिया को भेजा गया आम का टोकरा सभी को आश्चर्य में डाल देता है। व्यक्तिगत संबंधों की सीमा रेखा राजनैतिक वैचारिक मतभेदों से दूर रखी जाती है। प्रधानमंत्री नेहरू का हमारे आवास पर चाय पीने का कार्यक्रम है। मुख्यमंत्री के नाते मंत्रिमंडल के सभी सदस्य आमंत्रित हैं। एक समाजवादी के नाते राजेंद्र असुविधाजनक स्थिति में हैं, चूंकि समूचे देश के समाजवादी कांग्रेसी मुख्यमंत्री और मंत्रियों से समाजिक दूरी बनाए हुए हैं। लिहाजा, राजेंद्र भी पिता द्वारा आयोजित टी-पार्टी से दूरी बना लेते हैं। 1954 में कुलदीप नैयर की बहन राज नैयर से शादी की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। पार्टी का कार्य करते हुए उच्च न्यायालय में वकालत का कार्य भी शुरू कर दिया जाता है। शिमला उच्च न्यायालय उस समय इसका केंद्र होता है। न्यायाधीशों के चयन की प्रक्रिया में बाहरी दखल पहले से चलन में है। इसका लंबा-चौड़ा इतिहास विस्तार से भी राजेंद्र बताते हैं, जिसमें उनके स्वयं के भी अनुभव शामिल हैं।
भीमसेन सच्चर के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद प्रताप सिंह कैरों पंजाब के मुख्यमंत्री बनते हैं। भीमसेन सच्चर के समय से ही वे विरोधी खेमे में गिने जाते हैं। इसी बीच जिला जज के कुछ रिक्त पदों के लिए नियुक्तियां होनी हैं, और राजेंद्र का नाम भी चयन सूची में शामिल है, जिसको कैरो अपने राजनीतिक प्रभाव से रोक देते हैं। पंजाब के बंटवारे के बाद पंजाब बार एसोसिएशन के अध्यक्ष पद का दायित्व संभालने का सौभाग्य मिलता है। संसदीय राजनीति के किसी बड़े पद के लिए शायद राजेंद्र नहीं बने थे, लिहाजा कई मौके भी उन्हें कोई स्थान उपलब्ध नहीं करा पाए। दिल्ली हाई कोर्ट में 1970 में न्यायाधीश बनने से लेकर रिटायरमेंट तक न्यायालय के अंदर पक्षपात, हस्तक्षेप की सैकड़ों दास्तानों का सामना करना पड़ा। 1975 में आपातकाल की घोषणा के बाद ही किस प्रकार स्थानांतरण कर जयपुर रवाना किया गया इसका भी ब्योरेबार उल्लेख है।
रिटायरमेंट के बाद मानवीय अधिकार संगठनों से जुड़ गए। लेकिन वर्तमान और भावी इतिहास ने उन्हें अमर कर दिया, जब उन्हें अल्पसंख्यकों के आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक स्थिति का अध्ययन कर एक रिपोर्ट तैयार करने का ऐतिहासिक दायित्व मिला। इसे बाद में सच्चर कमीशन के रूप में जाना जाता है। सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों में उनकी हिस्सेदारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, शिशु मृत्यु दर, कर्ज आदि का विस्तार से विश्लेषण होता है। कइयों को यह मुस्लिम तुष्टीकरण का प्रयास लगता है। सरकार 2008 में उनके इस अभिनव कार्य के लिए पद्म अवॉर्ड देना चाहती थी, जिसे विनम्रतापूर्वक उन्होंने अस्वीकार कर दिया।

के.सी. त्यागी
ज.द.(यू) के प्रधान महासचिव


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