हिमालय-हिंद महासागर : ‘हर्ष’ की अवधारणा

Last Updated 28 Jan 2021 12:04:55 AM IST

हिमालय परिक्षेत्र तथा हिंद महासागर के तटीय क्षेत्रों के बीच सांस्कृतिक-आर्थिक आदान-प्रदान होने से भारतीय संस्कृति और सभ्यता का विस्तृत विस्तार हुआ जिसने वेद और उपनिषद् काल से लेकर आज तक ज्ञान, विज्ञान और दशर्न से विश्व को आलोकित किया है।


हिमालय-हिंद महासागर : ‘हर्ष’ की अवधारणा

हिमालय-हिंद महासागर राष्ट्र समूह (हर्ष) उन चौवन देशों का समूह है, जो भौगोलिक रूप से स्पष्ट व पूर्ण रूप से प्राकृतिक हैं, और इनमें व्यापार, वाणिज्य व सांस्कृतिक संबंधों की विविधता रही है।
भारत के व्यापारियों ने काशी, मथुरा, उज्जैन, प्रयाग और पाटिलपुत्र जैसे विभिन्न शहरों से पूर्वी तट के बंदरगाहों जैसे ममल्लापुरम, ताम्रलिप्ति, पुरी और कावेरीपट्टनम से पूर्व की ओर यात्राएं कीं। श्रीलंका, कंबोडिया, जावा, सुमात्रा, मलाया द्वीपों की यात्राएं कर चीन व जापान तक अपने व्यापारिक-सांस्कृतिक संबंध स्थापित किए। इन व्यापारियों को सांस्कृतिक राजदूत माना जाता था। भारत के वस्त्र, मसाले और कलाकृतियां सुदूर पश्चिमी देशों में प्रसिद्ध थे। कला के साथ-साथ संस्कृति का अधिक समावेशन भी हुआ। कई सांस्कृतिक प्रतिष्ठान जैसे कार्ले, भजा, कन्हेरी, अजंता-एलोरा आदि स्थापित हुए। इन केंद्रों पर बौद्ध मठ के प्रतिष्ठान भी मिले हैं, और उस समय के विश्वविद्यालयों को संवाद-सांस्कृतिक आदान-प्रदान का केंद्र माना जाता था। चीन और जापान में इनके प्रति अपार श्रद्धा है। भारतीय बंजारों के एक समूह, जो खुद को रोमा कहते थे और उनकी भाषा रोमानी थी, को यूरोप में जिप्सियों के नाम से जाना जाता है। इन्होंने पश्चिम में पाकिस्तान व अफगानिस्तान को पार करते हुए ईरान और इराक के रास्ते तुर्की तक यात्राएं कीं तथा सतत देशाटन से पर्यटन का रास्ता बना। फारस, टोरस पर्वत और कांस्टेंटिनोपल के माध्यम से यात्रा करते हुए रोमा यूरोप के विभिन्न देशों में बस गए।

यही कारण है कि पश्चिम के विभिन्न क्षेत्रों में पुरातात्विक उत्खनन से सिंधु सभ्यता की विभिन्न वस्तुओं की प्राप्ति हो रही है। इसी प्रकार तीसरी शताब्दी ईपू में भारत का मिस्त्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता के बीच व्यापार और सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। अपने ऐतिहासिक कालक्रम में नियामक स्थिति में होने के बाद भी भारत विस्तारवाद के विचार का समर्थक नहीं रहा है, बल्कि विश्व बंधुत्व की अवधारणा और सांस्कृतिक नेतृत्व के गुणों का प्रशंसक भी रहा है। परंतु औपनिवेशिक काल में ब्रिटेन ने अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे विभाजन करके हिमालय-हिंद महासागर राष्ट्र समूह को सीमित किया परंतु आज अतिसक्रिय भू-राजनीतिक स्थितियों के कारण इनके बीच सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंधों की पुनर्स्थापना की प्रक्रिया को शुरू करना अनिवार्य हो गया है।
भारतीय संस्कृति का संचार कजाकिस्तान से लेकर कैपटाउन तथा किर्गिस्तान से लेकर इंडोनेशिया तक था। इनके बीच व्यापार तथा संबंध घनिष्ठ और सहजीवितापूर्ण रहे हैं। हिमालय-हिंद महासागर राष्ट्र समूह के देश विश्व के भूभाग का एक तिहाई तथा जनसंख्या का 40.68 प्रतिशत होने के कारण विशाल बाजार भी हैं। विश्व की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ‘सी लाइन ऑफ कम्युनिकेशन’ हिंद महासागर से गुजराती है, जहां से होकर विश्व का 80 प्रतिशत व्यापार होता है। कुल ऊर्जा व्यापार का 90 प्रतिशत भाग भी यहीं से गुजरता है। हाल के दिनों में हिमालय-हिंद महासागर राष्ट्र समूह के देश नई आर्थिक संभावनाओं के लिए इन प्राचीन व्यापारिक मागरे को पुन: स्थापित करने के इच्छुक हैं, और इसमें भारत की सकारात्मक पहल चाहते हैं।
लंबे समय से विलोपित हो चुके सांस्कृतिक और  आर्थिक संबंधों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। इसके लिए हिमालय से हिंद महासागर तक फैले हिमालय परिक्षेत्र के राज्यों, अरब प्रायद्वीप, उत्तरी, पूर्वी और दक्षिण अफ्रीका के तटवर्ती राज्यों और मेडागास्कर, तटवर्ती भारतीय क्षेत्र, श्रीलंका, खमेर, सुमात्रा, जावा, चंपा, मलय, श्रीविजय क्षेत्र और ऑस्ट्रेलिया के साथ व्यापारिक संबंधों को पुन: स्थापित किया जाए जिससे 21वीं सदी एशिया की सदी होगी। भारत उसका नेतृत्वकर्ता बनेगा। ज्ञान, विज्ञान और जीवन-मूल्यों के कारण भारतीय संस्कृति की महत्ता कोरोना काल में सिद्ध भी हो चुकी है। इसलिए इस सांस्कृतिक और आर्थिक कड़ी को मजबूत करने के लिए हर्ष की अवधारणा को मूर्त रूप देना ही होगा।

डॉ. नवीन कुमार मिश्र
भू-राजनीति के जानकार


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