सामयिक : गणतंत्र में ’भारतबोध‘

Last Updated 26 Jan 2021 02:57:30 AM IST

हमारे लोकतांत्रिक-सामाजिक विमर्श में इन दिनों भारतीयता और उसकी पहचान को लेकर बहुत बातचीत हो रही है।


सामयिक : गणतंत्र में ’भारतबोध‘

वर्तमान समय को ‘भारतीय अस्मिता’ के जागरण का समय भी कहा जा रहा है। सही मायने में यह ‘भारतीयता के पुर्नजागरण’ का भी समय है। कहते हैं गणतंत्र 100 साल में साकार होता है, बावजूद इसके क्या अपने स्व के प्रति हममें आज भी वह जागृति है, जिसकी बात हमारे राष्ट्रनायक आजादी के आंदोलन में कर रहे थे। लंबी उपनिवेशवादी छाया ने हमें जैसा और जितना जकड़ा है उससे अलग  होकर अपनी बात कहना कठिन कल भी था और आज भी है। आज जबकि हम एक बार फिर गणतंत्र दिवस मना रहे हैं, तब विचार जरूरी है कि हम कौन थे और हमें क्या होना है।
हमारे बौद्धिक विमर्श में सबसे लांछित शब्द है-‘राष्ट्रवाद’। इसलिए राष्ट्रवाद के बजाय राष्ट्र, राष्ट्रीयता, भारतीयता और राष्ट्रत्व जैसे शब्दों का उपयोग किया जाना चाहिए। चूंकि ‘राष्ट्रवाद’ की पश्चिमी पहचान और उसके व्याख्यायित करने के पश्चिमी पैमानों ने इस शब्द को कहीं का नहीं छोड़ा है, इसलिए नेशनिलज्म या राष्ट्रवाद शब्द छोड़कर ही हम भारतीयता के वैचारिक अधिष्ठान की सही व्याख्या कर सकते हैं। भारतीय समाज को लांछित करने के लिए उस पर सबसे बड़ा आरोप वर्ण व्यवस्था का है जबकि वर्ण व्यवस्था एक वृत्ति थी, टेंपरामेंट थी। आपके स्वभाव, मन और इच्छा के अनुसार आप उसमें स्थापित होते थे। व्यावसायिक वृत्ति का व्यक्ति वहां क्षत्रिय बना रहने को मजबूर नहीं था, न ही किसी को अंतिम वर्ण में रहने की मजबूरी थी। अब ये चीजें काल बाह्य हैं। किंतु एक समय तक ये हमारे व्यवसाय से संबंधित थीं। हमारे परिवार से हमें जातिगत संस्कार मिलते थे-जिनसे हम विशेषज्ञता प्राप्त कर ‘जाब गारंटी’ भी पाते थे। बढ़ई, लुहार, सोनार, केवट, माली जातियां भर नहीं हैं। इनमें व्यावसायिक हुनर और दक्षता जुड़ी थी। गांवों की अर्थव्यवस्था इनके आधार पर चली। हुनरमंद जातियां आज रोजगार कार्यालय में पंजीयन करा रही हैं। जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था, दोनों ही अब अपने मूल स्वरूप में काल बाह्य हो चुकी हैं। ऐसे में जाति के गुण के बजाय, जाति की पहचान खास हो गई है। हर जाति का अपना इतिहास है, गौरव है और महापुरुष हैं। ऐसे में जाति भी ठीक है, जाति की पहचान भी ठीक है, पर जातिभेद ठीक नहीं है। ऐसा भेदभाव हमारी संस्कृति नहीं। मानवीय भी नहीं और सभ्य समाज के लिए जातिभेद कलंक है।

हम क्या 1947 में बने राष्ट्र हैं? क्या इसके पूर्व भारत नहीं था, तमाम सवाल हमारे सामने हैं। क्या गणतंत्र और लोकतंत्र की सोच हमें 1950 मिली या हमारी जड़ों में थी? देखते हैं तो पाते हैं कि हमारा राष्ट्र राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक अवधारणा से बना है। सत्य, अहिंसा, परोपकार, क्षमा जैसे गुणों के साथ यह राष्ट्र ज्ञान में रत रहा है, इसलिए यह ‘भा-रत’ है। डॉ. रामविलास शर्मा इस भारत की पहचान कराते हैं। इस भारत को पहचानने में महात्मा गांधी, धर्मपाल,अविनाश चंद्र दास, डॉ. राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय, वासुदेव शरण अग्रवाल, डॉ. विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा हमारी मदद कर सकते हैं। डॉ. रामविलास  शर्मा की पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ हमारा दृष्टिदोष दूर कर सकती है। आर्य शब्द के मायने ही हैं श्रेष्ठ और राष्ट्र मतलब है समाज और लोग। शायद इसीलिए इस दौर में तारिक फतेह कह पाते हैं, ‘मैं हिंदू हूं, मेरा जन्म पाकिस्तान में हुआ है’ यानी भारतीयता या भारत राष्ट्र का पर्याय हिंदुत्व और हिंदु राष्ट्र भी है क्योंकि यह ‘भौगोलिक संज्ञा’ है, कोई ‘पांथिक संज्ञा’ नहीं।  
‘भारतीयता’ भाववाचक शब्द है। यह हर उस आदमी की जमीन है जो इसे अपनी मातृभूमि और पुण्यभूमि मानता है, जो इसके इतिहास से अपना रिश्ता जोड़ता है, जो इसके सुख-दुख और आशा-निराशा को अपने साथ जोड़ता है, जो इसकी जय में खुश और पराजय में दुखी होता है। समान संवेदना और समान अनुभूति से जुड़ने वाला हर भारतवासी अपने को भारतीय कहने का हक स्वत: पा जाता है। भारत किसी के विरुद्ध है। विविधता में एकता इस देश की प्रकृति है, यही प्रकृति इसकी विशेषता भी है। भारत एक साथ नया और पुराना दोनों है। विविध सभ्यताओं के साथ संवाद, अवगाहन, समभाव और सर्वभाव इसकी मूलवृत्ति है। समय के साथ हर समाज में कुछ विकृतियां आती हैं। भारतीय समाज भी उन विकृतियों से मुक्त नहीं है, लेकिन प्राय: ये संकट उसकी लंबी गुलामी से उपजे हैं। स्त्रियों, दलितों के साथ हमारा व्यवहार भारतीय स्वभाव और उसके दर्शन के अनुकूल नहीं है। किंतु गुलामी के कालखंड में समाज में आई विकृतियों को त्यागकर आगे बढ़ना हमारी जिम्मेदारी है और हम बढ़े भी हैं।
भारतीय दर्शन संपूर्ण जीव सृष्टि का विचार करने वाला दर्शन है। यहां आनंद ही हमारा मूल है। परिवार की उत्पादकीय संपत्ति ही पूंजी थी। चाणक्य कहते हैं, ‘मनुष्यानां वृत्ति अर्थ’। इसलिए भारतीय दर्शन योगक्षेम की बात करता है। योग का मतलब है-अप्राप्ति की प्राप्ति और क्षेम का मतलब है-प्राप्त की सुरक्षा। इसलिए चाणक्य कह पाए, ‘सुखस्य मूलं धर्म:/धर्मस्य मूलं अर्थ:/अर्थस्य मूलं राज्यं’। प्रख्यात विचारक ग्राम्सी कहते हैं, ‘गुलामी आर्थिक नहीं सांस्कृतिक होती है’। भारतीय समाज भी लंबे समय से सांस्कृतिक गुलामी से घिरा हुआ है, जिसके कारण राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को कहना पड़ा, ‘हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी, आओ विचारें मिलकर, यह समस्याएं सभी’। किंतु दुखद यह है कि आजादी के बाद भी हमारा बौद्धिक, राजनीतिक और प्रभु वर्ग समाज में वह चेतना नहीं जागृत कर सका, जिसके आधार पर भारतीय समाज का खोया हुआ आत्मविश्वास वापस आता। भारतीय ज्ञान परंपरा को अंग्रेजों ने तुच्छ बताकर खारिज किया ताकि वे भारतीयों की चेतना को मार सकें और उन्हें गुलाम बनाए रख सकें। भारत को समझने की आंखें और दिल, दोनों हमारे पास नहीं थे। स्वामी दयानंद, महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, बाबा साहब आंबेडकर द्वारा दी गई दृष्टि से भारत को समझने के बजाए हम विदेशी विचारकों द्वारा आरोपित दृष्टियों से भारत को देख रहे थे।
भारत के सामने अपनी एकता को बचाने का एक ही मंत्र है,‘सबसे पहले भारत’। भारत का भला और बुरा भारत के लोग ही करेंगे। अपने संकटों के हल तलाशना और विश्व मानवता को सुख के सूत्र देना हमारी जिम्मेदारी है। विश्व श्रेष्ठतम का ही चयन करेगा। हमारे पास एक ऐसी वैश्विक पूंजी है जो समावेशी है, सुख और आनंद का सृजन करने वाली है। अपने को पहचान कर भारत अगर इस ओर आगे आ रहा है, तो उसे आने दीजिए। इस गणतंत्र दिवस पर भारत का भारत से परिचय कराने का संकल्प हम ले सकें तो वह भारत मां को माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा।

प्रो. संजय द्विवेदी


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