बिहार चुनाव : नतीजों में दलित का अदृश्य पोस्टर

Last Updated 20 Nov 2020 03:46:00 AM IST

बिहार विधानसभा के चुनाव नतीजों से साफ लगता है कि राज्य के कुल 7,18,22,450 मतदाताओं ने किसी भी गठबंधन के पक्ष में लोकप्रिय बहुमत से नहीं चुना।


बिहार चुनाव : नतीजों में दलित का अदृश्य पोस्टर

एनडीए ने दूसरे गठबंधनों के मुकाबले दर्जन भर सीटें ज्यादा जीतीं और 243 सदस्यों की विधानसभा में 125 की संख्या तक पहुंची। क्या ये नतीजे इस वजह से भी हैं कि 2020 के चुनाव में 16 प्रतिशत से ज्यादा आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई चेहरा किसी गठबंधन के पास नहीं था? यह आबादी अनुसूचित जाति समूह की है, जिसे राजनीतिक तौर पर दलित कहा जाता है।
बिहार के चुनाव में चार गठबंधन मैदान में थे। एक सत्ताधारी गठबंधन में जनता दल यूनाइटेड के नेता मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतत्व वाली भारतीय जनता पार्टी मुख्य हैं। इसमें पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी हम और मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी भी शामिल हैं। मांझी की पृष्ठभूमि महादलित जाति मुसहर से है, जो बिहार में बड़ी आबादी वाली दलित जातियों में से है। बिहार में 23 जातियां अनुसूचित जातियों की सूची में हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार इन 23 जातियों की आबादी एक करोड़ पैंसठ लाख से अधिक थी, जो राज्य की कुल आबादी का 16% से अधिक है। अनुसूचित जातियों की कुल आबादी का 94.17 प्रतिशत लोग केवल नौ जातियों के हैं। ये नौ जातियां हैं-दुसाध, चमार/रविदास, मुसहर, पासी, धोबी, भुइया, रजवार, हाड़ी और डोम। अन्य 14 एससी जातियां केवल 5.83 प्रतिशत हैं। इन आंकड़ों का ही यह हिस्सा भी है कि बिहार में दलितों की कुल आबादी में लगभग 60% आबादी केवल दो जातियां हैं।

पहली है दुसाध (29.85%) और दूसरी है रविदास (29.58%)। बाकी 40 प्रतिशत आबादी 21 अनुसूचित जातियों की है।
बिहार में हर स्तर पर जाति आधारित राजनीतिक दल हैं। बिहार जैसे राज्य में किसी सामाजिक पृष्ठभूमि वाले मतदाता समूह में रुझान दिखता है कि उसके अनुकूल राजनीतिक नेतृत्व हो तो वह पूरे जोरशोर से चुनाव में हिस्सेदारी करता है। इस आधार पर देखें को विपक्ष का महागठबंधन बिना दलित चेहरे के चुनाव मैदान में था। महागठबंधन में लालू प्रसाद द्वारा स्थापित राजद का नेतृत्व उनके पुत्र तेजस्वी यादव कर रहे थे। तीन वामपंथी पार्टयिां-सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई-एमएल एवं सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के बीच यह गठबंधन था। राजद के पास केवल उदय नारायण चौधरी हैं, जो दलित पृष्ठभूमि से हैं। दूसरे नेता श्याम रजक भी हाल में जदयू से राजद में शामिल हुए हैं। राजद के पास पहले रमई राम का चेहरा था। लेकिन ये सभी चेहरे चुनाव प्रचार में पोस्टर के हिस्से नहीं थे। दरअसल, राजद का रुझान खुद को सामाजिक न्याय की छवि से बाहर निकालने में था। लिहाजा, उसका ध्यान दलितों के साथ गठबंधन की तरफ गया ही नहीं। राजनीतिक दल दलित जातियों में अलग-अलग जातियों  के बीच अपना आधार बनाने का इरादा रखते हैं, तब भी राजद के पास इस रणनीति का भी घोर अभाव दिखाई देता है।
तीसरा गठबंधन मायावती, देवेन्द्र यादव, उपेन्द्र कुशवाह और औबेसी यानी बसपा, समाजवादी जनता दल (लोकतांत्रिक), ऑल इंडिया इत्तेहादुल मुस्लिमीन और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के समझौते वाला था लेकिन बसपा का कोई बिहारी चेहरा ही अब तक नहीं बन सका है। बसपा को महज 1.5 प्रतिशत मत मिले और उसका एक गैर-दलित उम्मीदवार चुनाव जीत सका। चौथा गठबंधन पप्पू यादव और उत्तर प्रदेश वाली भीम आर्मी का था। भीम आर्मी के नेता जहां तक पहुंच सके वहां हेलीकॉप्टर से पहुंचकर प्रचार कर रहे थे। बिहार की 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार अनुसूचित जातियों की कुल आबादी का 92.62% हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है और 7.38% हिस्सा शहरों में। बिहार में पांच वर्षो तक दलितों के बीच राजनीतिक सक्रियता का अभाव दिखता है। चुनाव के मौके  पर कुछेक दलित चेहरे प्रस्तुत किए जाते हैं। लेकिन 2020 के चुनाव में दलित नेतृत्व किस रूप में दिखते हैं? संसदीय राजनीति में यह देखा जाना महत्त्वपूर्ण होता है कि किस सामाजिक आधार को किस तरह की राजनीतिक ताकत मिलती है। यही उसके लिए वास्तविक चुनाव नतीजे होते हैं। सत्तारूढ़ पार्टयिां सत्ता में हिस्सेदारी देकर अपनी राजनीतिक कमियों को आकषर्ण में बदल सकती हैं, लेकिन विपक्ष खास तौर से बिहार के संदर्भ में महागठबंधन क्या करेगा? दलितों की तरफ महागठबंधन का रु झान होता तो बिहार की राजनीतिक स्थिति की कल्पना की जा सकती है।

अशोक भारती


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