इंसेफेलाइटिस : योगी मॉडल हिट

Last Updated 20 Nov 2020 03:48:34 AM IST

कहते हैं कि इतिहास का सबसे बड़ा सबक यही है कि हम इतिहास से कोई सबक नहीं सीखते। देश के अन्य राज्यों ने उत्तर प्रदेश में इंसेफेलाइटिस नियंत्रण का योगी मॉडल कोरोना काल में अपनाया होता तो आज देश की यह दुर्दशा न होती।


इंसेफेलाइटिस : योगी मॉडल हिट

चार दशक तक पूर्वाचल के मासूमों पर कहर बरपाने वाली महामारी इंसेफेलाइटिस पर बीते तीन साल में ही योगी सरकार ने नकेल कस दी है। इन तरकीबों को कोरोना में भी अपनाया। कोरोना मरीजों की संख्या उत्तर प्रदेश में कम है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में 1978 में पहली बार दस्तक देने वाली विषाणु-जनित बीमारी इंसेफेलाइटिस की चपेट में 2017 तक आकर जहां 50 हजार से अधिक बच्चे असमय काल के गाल में समा चुके थे और करीब इतने ही जीवन भर के लिए शारीरिक और मानसिक विकलांगता के शिकार हो गए थे वहीं पिछले तीन सालों में ये आंकड़े दहाई से होते हुए इकाई में सिमटते गए। महामारी का केंद्र बिंदु समझे जाने वाले गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज के इंसेफेलाइटिस वार्ड में एक दौर वह भी था जब हृदय भेदती चीखों के बीच एक बेड पर दो से तीन बच्चे भर्ती नजर आते थे। अब अधिकतर बेड खाली हैं। जिन पर मरीज हैं भी, तो दुरु स्त इलाज के सुकून में। यह सब संभव हुआ है इस महामारी को करीब से देखने, बतौर सांसद लोक सभा में हमेशा आवाज उठाने और मुख्यमंत्री बनने के बाद टॉप एजेंडा में शामिल कर इंसेफेलाइटिस उन्मूलन का संकल्पित कार्यक्रम लागू करने वाले योगी आदित्यनाथ के संवेदनशील प्रयासों से। 1978 से पहले 1956 में देश में पहली बार तमिलनाडु में इस बीमारी का पता चला था।

चूंकि इंसेफेलाइटिस का वायरस नर्वस सिस्टम पर हमला करता है, इसलिए जनसामान्य की भाषा में इसे मस्तिष्क ज्वर या दिमागी बुखार कहा जाने लगा। बीमारी नई-नई थी तो कई लोग ‘नवकी बीमारी’ भी कहने लगे। 1978 से 2016 तक मध्य जून से मध्य अक्टूबर के चार महीने गोरखपुर और बस्ती मंडल के लोगों खासकर गरीब ग्रामीण जनता पर बहुत भारी गुजरते थे। भय रहता था कि न जाने कब उनके घर के चिराग को इंसेफेलाइटिस का झोंका बुझा दे। मानसून में तो खतरा और अधिक होता था, कारण बरसात का मौसम वायरस के पनपने को मुफीद होता है। खैर, मार्च, 2017 में सरकार की कमान संभालते ही योगी आदित्यनाथ ने इंसेफेलाइटिस के उन्मूलन को अपनी शीर्ष प्राथमिकता में रखा। वैसे 1998 में पहली बार लोक सभा में योगी ने ही इंसेफेलाइटिस का मुद्दा उठाया था। तब से मुख्यमंत्री बनने से पहले बतौर सांसद 19 वर्षो तक सदन के हर सत्र में उन्होंने इस महामारी पर आवाज बुलंद की। इसकी रोकथाम के लिए तत्कालीन सत्ताधीशों की तंद्रा तोड़ने को योगी ने तपती दोपहरी में अनेक बार गोरखपुर के मेडिकल कॉलेज से जिलाधिकारी और कमिश्नर दफ्तर तक 10 किमी. से अधिक पैदल मार्च भी किया। उनकी सजल आंखों ने मेडिकल कॉलेज में मासूमों के दम तोड़ने का खौफनाक मंजर देख रखा है, उनके दिल में उन बच्चों के बेबस माता-पिता का दर्द भी पैबस्त है, उन्होंने इस बीमारी से विकलांग उन बच्चों की मनोदशा को करीब से महसूस किया है। तो योगी से बेहतर और ठोस कार्ययोजना और कौन बना सकता था।
बीमारी को जड़ से मिटाने के अपने संकल्प को लेकर उन्होंने स्वास्थ्य सेवाओं की मजबूती के साथ स्वच्छता, शुद्ध पेयजल और जागरूकता को मजबूत हथियार माना और शुरू किया ‘दस्तक अभियान’। यह अंतरविभागीय समन्वय की ऐसी पहल थी जिसने इंसेफेलाइटिस उन्मूलन की इबारत लिखने को स्याही उपलब्ध कराई। दस्तक अभियान में स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास, पंचायती राज, महिला एवं बाल कल्याण आदि विभागों को जोड़ा गया। आशा बहुओं, आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों, एएनएम, ग्राम प्रधान, शिक्षक स्तर पर लोगों को इंसेफेलाइटिस से बचाव के प्रति जागरूक करने की जिम्मेदारी तय की गई। गांव-गांव शुद्ध पेयजल और हर घर में शौचालय का युद्धस्तरीय कार्य हुआ। घर-घर दस्तक देकर बच्चों के टीकाकरण के लिए प्रेरित किया गया। योगी सरकार के इस अभियान को अच्छा प्लेटफॉर्म मिला 2014 से जारी मोदी सरकार के स्वच्छ भारत मिशन के रूप में। पिछले तीन सालों में दस्तक अभियान के नतीजे शानदार रहे हैं। टीकाकरण जहां शत-प्रतिशत की ओर अग्रसर है तो वहीं ग्रामीण स्तर पर आशा बहुओं द्वारा फीवर ट्रेकिंग किए जाने, सरकारी जागरूकता और स्वच्छता संबंधी प्रयासों से इंसेफेलाइटिस के मामलों और इससे मृत्यु की रफ्तार थम सी गई है।
योगी की प्राथमिकता यह भी थी कि एक भी इंसेफेलाइटिस मरीज इलाज से वंचित न रहने पाए। गोरखपुर, देवरिया, महराजगंज, कुशीनगर, बस्ती, संतकबीरनगर, सिद्धार्थनगर के अलावा यूपी की सीमा से लगे बिहार के गोपालगंज, बगहा, सिवान तथा नेपाल की तराई के जिलों से इंसेफेलाइटिस रोगी पहले बीआरडी मेडिकल कॉलेज ही उपचार के लिए आते थे। लिहाजा, कॉलेज में चिकित्सकीय सेवाओं को मजबूत करने के साथ उन्होंने ऐसी व्यवस्था बना दी कि मरीज को समुचित इलाज गांव के पास ही मिल जाए। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी-पीएचसी) को इंसेफेलाइटिस ट्रीटमेंट सेंटर के रूप में विकसित कर इलाज की सभी सुविधाएं सुनिश्चित कराई गई। अकेले गोरखपुर जिले में 9 सीएचसी और 13 पीएचसी समेत कुल 23 इंसेफेलाइटिस ट्रीटमेंट सेंटर पर्याप्त सुविधाओं के साथ बीमारी पर लगाम लगा रहे हैं। चौरीचौरा, गगहा और पिपरौली सीएचसी पर मिनी पीकू (पीडियाट्रिक इंटेंसिव केअर यूनिट) की व्यवस्था है। सभी पीएचसी पर दो तथा सभी सीएचसी पर छह बेड इंसेफेलाइटिस मरीजों के लिए रिजर्व हैं। जिला अस्पताल में भी ऐसे मरीजों के लिए 17 बेड की व्यवस्था है। इन सभी जगहों पर दवा और ऑक्सीजन की प्रचुर उपलब्धता इसलिए सुनिश्चित रहती है कि इसका संज्ञान खुद मुख्यमंत्री लेते हैं। इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौतों में 2018 में 80 प्रतिशत तो 2019 में 90 प्रतिशत कमी आई है। इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान योगी सरकार में बेहतर हुई मेडिकल कॉलेज की चिकित्सकीय सुविधाओं का है। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के पहले बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज के इंसेफेलाइटिस वार्ड में हाई डिपेंडेंसी यूनिट की संख्या महज 6 थी, जो अब 60 हो गई है। आईसीयू में वेंटिलेटर की संख्या 60 से बढ़कर 120 तथा नवजातों के लिए वार्मर की संख्या 14 से बढ़कर 40 हो गई है। 2017 तक इस कॉलेज के बाल रोग विभाग में 154 बेड थे, इनकी यह संख्या अब 500 है। अब बीमारी नियंत्रित हुई है, दूसरे जिलों में सीएचसी और पीएचसी स्तर पर बेहतर चिकित्सकीय सुविधा मिलने से बीआरडी में आने की जरूरत नहीं के बराबर पड़ रही है यानी योगी मॉडल हिट है।

आचार्य पवन त्रिपाठी
मुंबई भाजपा के उपाध्यक्ष


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