हाथरस : समाज की उदासीनता तो जिम्मेदार नहीं!
हाथरस की दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने पुन: समाज की चिंताजनक स्थिति और संवेदनशील विषयों पर ओछी राजनीति, दोनों को उजागर किया है।
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घटना में एक बेटी के प्राण चले गए किंतु जिस प्रकार से समाज को जोड़ने की जिम्मेदारी से बंधे राजनीतिक दलों ने घटना की आड़ में सामाजिक बिखराव उत्पन्न करने का प्रयास किया है, वह उनकी दोहरी मानसिकता को प्रकट करता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार बलात्कार के मामलों में राजस्थान शीर्ष पर है। राजस्थान में बीते एक वर्ष में बलात्कार के मामले 81.45 प्रतिशत बढ़े हैं। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या (लगभग 23 करोड़) की तुलना में राजस्थान की जनसंख्या तीन गुनी कम (लगभग 8 करोड़) है, किंतु उत्तर प्रदेश की तुलना में एक वर्ष में राजस्थान में बलात्कार के दो गुने प्रकरण (5997 प्रकरण) आए। जनसंख्या के आधार पर केरल बहुत छोटा राज्य है, जिसकी जनसंख्या लगभग 3.5 करोड़ है, किंतु केरल में पिछले दस वर्षो में बलात्कार के अपराध के प्रकरण 256 प्रतिशत बढ़े हैं और 2019 में इस राज्य में बलात्कार के 2023 प्रकरण सामने आए। बलात्कार के मामलों में राजस्थान नम्बर एक और केरल नम्बर दो पर है। एनसीआरबी के आंकड़े के अनुसार देश में हर 16 मिनट एक महिला बलात्कार की शिकार बनती है।
जिस देश में नारी सम्मान की परंपरा रही हो, जहां बलात्कार के लिए मृत्युदंड तक का प्रावधान हो, वहां ऐसी घटनाएं थमने के बजाय बढ़ रही हैं, तो यह समाज के लिए गंभीर चिंतन का विषय है। चूंकि राजनैतिक दलों का मुख्य उद्देश्य समाज को दिशा देना होता है तो इन घटनाओं पर सेलेक्टिव आक्रोश और सेलेक्टिव चुप्पी, दोनों ही समाज के लिए घातक होती हैं।
राजनीतिक दलों द्वारा राजस्थान, केरल, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश व अन्य राज्यों में निरंतर सामने आ रही बलात्कार की घटनाओं पर आंखें बंद कर लेना और उत्तर प्रदेश के प्रकरण विशेष को लेकर स्वार्थी तत्वों द्वारा देश-प्रदेश में सामुदायिक वैमनस्य व हिंसा फैलाने का षडयंत्र रचने की जो स्थिति दिख रही है, वह निश्चित ही चिंताजनक है। जाति-धर्म के आधार पर घटना की व्याख्या करने से समाज के टूटने का खतरा बढ़ रहा है। समाज को विचार करना होगा कि कठोर दंड के प्रावधान के बाद भी इस तरह के अपराध समाज में क्यों बढ़ रहे हैं? इस समस्या की जड़ कहां है और इसके समाधान के उपाय क्या हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि राजनीतिक उद्देश्यहीनता और सामाजिक उदासीनता इस समस्या के समाधान में बाधक हों? चूंकि कानून बनने और सजा मिलने के अनेक उदाहरणों के बाद भी स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ती जा रही है तो समाज पर ही प्रश्न उठेगा कि वह कहां विफल हो रहा है? लगता है कि व्यक्तिगत संवेदना और सामाजिक चेतना का हृास घटने के बजाय बढ़ता जा रहा है। बीते कई दशकों से सिनेमा में अश्लीलता और भारतीय संस्कृति के मूल्यों को चोट पहुंचाने वाली सामग्री को षडयंत्र के अंतर्गत परोसा जा रहा है। मुक्त चिंतन, साहित्य और फिल्मों के नाम पर स्वच्छंदता, नशा, हिंसा, मानसिक विकृति, यौन उन्मुक्तता व छद्म नारीवाद एवं फूहड़ता व अराजकता फैलाने का प्रयास किया जा रहा है। इंटरनेट जैसी युक्ति आने के बाद अल्पायु में ही बच्चों के हाथ में मोबाइल व कंप्यूटर के माध्यम से अश्लीलता व व्यसन उत्पन्न करने वाली सामग्रियां बेरोकटोक पहुंच रही हैं।
ऐसे में सरकार की तो जिम्मेदारी है ही कि सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने वाली तथा हमारे बच्चों के मन-मस्तिष्क को विकृत करने सामग्रियों व माध्यमों पर अंकुश लगाए, किंतु समाज की भी जिम्मेदारी है कि समस्या का समाधान अपने घर से ढूंढ़ना शुरू करे। समाज की इकाई परिवार होता है और परिवार की इकाई व्यक्ति। व्यक्ति, परिवार और समाज, तीनों को अलग-अलग नहीं, बल्कि समग्रता में देखकर इस भयानक सामाजिक समस्या का समाधान ढूंढ़ना होगा। अभिभावकों को चिंतन करना चाहिए कि अपने ही परिवार में उठाए गए सुधारवादी कदम से केवल समाज के दूसरे परिवार ही लाभान्वित ही नहीं होंगे, अपितु समाज सुरक्षित होगा तो उनका अपना परिवार, अपने बच्चों का भी भविष्य सुरक्षित व सुंदर बनेगा। इस सोच के साथ समाज को इस दिशा में सरकारी स्तर पर किए जा रहे प्रयासों में भागीदार बनना चाहिए जिससे कि हम बलात्कार और नारी के प्रति हिंसा जैसे जघन्य अपराधों पर अंकुश लगा सकें और आने वाली पीढ़ी के लिए वास्तविक अथरे में सभ्य समाज का निर्माण कर सकें।
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