बिहार चुनाव : बदलाव की दस्तक

Last Updated 07 Oct 2020 03:43:14 AM IST

उत्तर भारत के राज्यों में बिहार उत्तर प्रदेश के बाद राजनीतिक रूप से प्रमुख राज्य रहा है।


बिहार चुनाव : बदलाव की दस्तक

इसके ऐतिहासिक साक्ष्य हैं कि यह प्रांत राजनीतिक प्रयोगों का केंद्र रहा है। फिर चाहे वह गैर कांग्रेसी सरकारों का अस्तित्व में आना हो या फिर 1974 का संपूर्ण क्रांति आंदोलन। यहां तक कि स्वतंत्रता के पहले भी 1930 के दशक में त्रिवेणी संघ ने राजनीति को नई दिशा दी थी। पिछड़े वर्ग की जातियों के इस राजनीतिक संगठन को भले ही 1937 में हुए अंतरिम चुनाव में सफलता नहीं मिली थी, लेकिन यह राजनीति में नया तरह का प्रयोग था। यह प्रयोग था बहुसंख्यक समाज का राजनीति में हस्तक्षेप।
मौजूदा समय में बीते तीन दशक से बिहार की सत्ता के शीर्ष पर बहुसंख्यक समाज के लोग रहे हैं, तो इसके पीछे त्रिवेणी संघ की विचारधारा रही है, लेकिन इस बार का चुनाव राजनीति के लिहाज से बेहद दिलचस्प होता जा रहा है। पहले यह माना जा रहा था कि नीतीश कुमार को इस बार भी कोई चुनौती नहीं मिलने वाली। केंद्र में सत्तासीन भाजपा के साथ उनकी पार्टी का गठबंधन आसानी से चुनावी वैतरणी पार कर जाएगी, परंतु अभी तक जो हालात सामने आए हैं, वह चौंकाने वाले हैं। मसलन, यह पहली बार हो रहा है कि प्रथम चरण के नामांकन में अब केवल तीन दिन शेष रह गए हैं और किसी भी दल ने औपचारिक रूप से अपने उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की तरफ से यह तस्वीर साफ नहीं है कि कौन सा दल कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा। उधर लोजपा पहले ही एलान कर चुकी है कि वह भाजपा के उम्मीदवारों के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारेगी, लेकिन जिन सीटों पर जद (यू) के उम्मीदवार होंगे, वहां वह ताल ठोकेगी।

चिराग पासवान के इस दांव को लेकर तमाम तरह के कयास लगाए जा रही हैं। एक कयासबाजी तो यह कि चिराग पासवान भाजपा के इशारे पर ऐसा कर रहे हैं। दरअसल, भाजपा चाहती है कि वह ऐसा करें ताकि अपने उम्मीदवारों को लोजपा के टिकट पर चुनाव लड़वाएं। ऐसा कर भाजपा एक साथ गठबंधन में भी रह सकती है और अलग होकर चुनाव परिणाम आने के बाद सीएम पद पर दावेदारी भी ठोंक सकती है। बिहार में चल रहे चुनावी सियासत का आलम यह है कि स्वयं नीतीश कुमार सकते में आ गए हैं। न तो वे स्वयं और न ही उनकी पार्टी के कोई और नेता भाजपा के खिलाफ कुछ बोल रहे हैं। इस बीच बिना किसी औपचारिक घोषणा के ही नीतीश कुमार अपने दल के उम्मीदवारों को सिंबल भी बांट रहे हैं। वहीं इस पूरे प्रकरण में उनकी अपनी पार्टी में विरोध के स्वर फूटने लगे हैं। असल में इस बार के चुनाव में सभी को भीतरघात से डर है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी फूंक-फूंककर कदम उठा रहा है ताकि गठबंधन के स्तर पर भीतरघात न हो, जबकि वह स्वयं भीतरघात करने को बेताब भी दिख रही है। वैसे इस बार के चुनाव में उसकी पहली सफलता यही है कि उसने नीतीश कुमार को चुनाव के पहले ही बैकफुट पर ला दिया है। अभी तक जो बातें बिहार और दिल्ली के सियासी गलियारे से आ रही हैं; उसके मुताबिक जद (यू) 122 और भाजपा 121 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। एक सीट का अंतर कोई अंतर नहीं है। एक तरह से भाजपा ने नीतीश कुमार को मजबूर कर दिया है कि वह गठबंधन में भाजपा को जद (यू) के समतुल्य मानें।
दरअसल, वर्तमान में जो कुछ हो रहा है, उसे समझने के लिए बिहार के पिछले तीन दशक की राजनीति को समझना जरूरी है। वर्ष 1990 बिहार के राजनीतिक इतिहास में इसलिए भी उल्लेखनीय है कि इस वर्ष ओबीसी राजनीति का उभार सामने आया। इसके अगुआ बने लालू प्रसाद और उनके मुख्य सहयोगी थे नीतीश कुमार, लेकिन राजनीति कभी सरल रेखा का अनुगमन नहीं करती है। इसी दौर में लालू प्रसाद के खिलाफ नीतीश कुर्मी और कोइरी जाति को लेकर नया समीकरण खड़ा करते हैं और जनता दल से अलग समता पार्टी बनाते हैं। इसके बावजूद 1995 में लालू प्रसाद के नेतृत्व में जनता दल को पूर्ण बहुमत मिलता है। इसी दौरान लोक सभा में जनता दल संसदीय दल का विभाजन भी होता है। वर्ष 1995 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद के हाथों मिली बड़ी पराजय के बाद नीतीश कुमार ने भाजपा का आसरा लिया। यह गठबंधन राजनीति के नये युग की शुरु आत थी। विचारधारा को किनारे रख गठबंधन बनाए गए। ऐसा करने में लालू प्रसाद भी पीछे नहीं रहे। जिस कांग्रेस को हराकर वह सत्ता में आए, उन्होंने उसी कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और आजतक गठबंधन धर्म निभा रहे हैं।
बिहार की राजनीति के लिहाज से इक्कीसवीं सदी की शुरुआत महत्त्वपूर्ण रही। सियासती बिसात पर बिहार का बंटवारा हुआ और झारखंड अस्तित्व में आया। भौगोलिक बंटवारे के अलावा यह सत्ता का बंटवारा भी था। बिहार में राजद सत्ता में बना रहा और झारखंड भाजपा के हाथों में चला गया। इस बीच लालू प्रसाद का ग्राफ तेजी से गिरा। हालांकि 2004 के लोक सभा चुनाव में राजद को कांग्रेस के साथ अच्छी सफलता हाथ लगी। इसी चुनाव में नीतीश कुमार बाढ़ संसदीय क्षेत्र से चुनाव हार गए। इसके बाद से उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर कोई चुनाव नहीं लड़ा है। वे विधान परिषद के सदस्य बने रहे हैं। यह उनकी पूर्व की राजनीति के ठीक उलट थी। ठीक एक साल बाद ही 2005 में उनका सितारा बुलंद हुआ और भाजपा के साथ उन्होंने सरकार बनाने में सफलता हासिल की। इसके बाद राजद चुनाव दर चुनाव कमजोर होता गया।
यह सिलसिला 2015 तक चला। वर्ष 2015 में एक बार फिर नीतीश कुमार ने पाला बदला और राजद के साथ मिलकर भाजपा को करारी मात दी। हालांकि इसके पहले 2014 में लोक सभा चुनाव के दौरान उन्होंने खुद को अकेले आजमाने की कोशिश की थी और बुरी तरह हार गए। यह चुनाव उनके लिए लिटमस टेस्ट था, जिसके आधार पर उन्होंने खुद की राजनीतिक हैसियत को आंका और पाया कि बिना गठबंधन के वह बिहार की राजनीति में कहीं नहीं टिकते। बहरहाल, यह चुनाव तय करेगा कि वे बिहार की राजनीति में बने रहेंगे या फिर बाहर होंगे। भाजपा की मजबूती ने उन्हें कमजोर कर दिया है। वहीं राजद इस बार कांग्रेस और वामदलों के साथ मिलकर एक चुनौती देने की क्षमता रखने वाला गठबंधन बन चुका है। इसके अलावा जातिगत समीकरणों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रहेगी। इससे नीतीश भी वाकिफ हैं कि बिहार में 50-60 फीसद वोट जातिगत समीकरणों के आधार पर होते हैं। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि इस बार के चुनाव में बदलाव बिहार के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।

नवल किशोर कुमार


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