कृषि : खाद्य सुरक्षा से न हटे ध्यान
पिछले ही दिनों संसद से धक्काशाही से पारित कराए गए दो विधेयक, ऐसे हरेक पहलू से जिसकी कल्पना की जा सकती है, आपत्तिजनक थे।
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इन विधेयकों को, विभाजन की मांग किए जाने के बावजूद, बिना मतविभाजन के ही राज्य सभा से जैसे पारित कराया गया, पूरी तरह से अलोकतांत्रिक था। तथ्य यह है कि इन विधेयकों के जरिए केंद्र सरकार, कृषि विपणन व्यवस्थाओं में, जो संविधान की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत राज्य की सूची में आती हैं, इकतरफा तरीके से और बुनियादी बदलाव कर रही है और यह संघीय व्यवस्था पर एक भारी आघात है।
और इन बदलावों के जरिए, स्वतंत्रता से पहले की कृषि विपणन व्यवस्था को ही पुनर्जीवित किया जा रहा था, जिसके तहत किसानों को शासन के किसी भी संरक्षण के बिना, पूंजीवादी बाजार के रहमो-करम पर छोड़ दिया जाता था और इस पूंजीवादी बाजार ने 1930 के दशक की मंदी के दौरान किसानों को पूरी तरह से कुचल कर ही रख दिया था। ऐसा करना, स्वतंत्रता के वादों से पीछे पलटना है। करोड़ों छोटे किसानों को मुट्ठीभर निजी खरीददारों के सामने खड़े करना, जैसाकि ये विधेयक करने जा रहे हैं, उन्हें कई बेचने वाले और एक ही खरीददार वाली स्थितियों में, मूल्य घटाकर लगाए जाने के जरिए, शोषण के खतरे के सामने धकेल देता है।
बेशक, सरकार की ओर से इसके दावे किए जा रहे हैं कि शासन, किसानों को ऐसे इजारेदाराना खरीददारों के रहमो-करम पर नहीं छोड़ने जा रहा है, कि सरकार की गारंटी पर आधारित न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था आगे भी जारी रहने जा रही है, आदि। लेकिन इन विधेयकों में इस संबंध में एक शब्द भी नहीं है। और सरकार ऐसा कोई आश्वासन कानून में शामिल करने से भी इंकार कर रही है, जो उसकी बदनीयती को ही दिखाता है। सरकार की नीयत ही नहीं है कि किसानों को स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिश के अनुरूप, न्यूनतम समर्थन मूल्य का उनका अधिकार मिले। इस कमेटी ने सी2 लागत के ऊपर 50 फीसद पर, न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की सिफारिश की थी।
बहरहाल, इस पूरी बहस में एक महत्त्वपूर्ण पहलू छूट ही गया है। अब तक बहस पूरी तरह से किसानों पर पड़ने वाले प्रभाव पर ही केंद्रित रही है। लेकिन खाद्य सुरक्षा के प्रश्न को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए, जो सीधे साम्राज्यवाद को तस्वीर में ले आता है। साम्राज्यवाद लंबे अरसे से इसकी कोशिशें करता आया है कि भारत जैसे देशों को खाद्यान्न आयात निर्भरता की स्थिति में धकेल दिया जाए और इन देशों में इस समय जो रकबा खाद्यान्न उत्पादन में लगा हुआ है, उसे दूसरी ऐसी फसलें पैदा करने की ओर मोड़ दिया जाए, जो साम्राज्यवादी देश पैदा ही नहीं कर सकते हैं क्योंकि ये पैदावारें कटिबंधीय या अर्ध-कटिबंधीय क्षेत्रों में ही पैदा हो सकती हैं। लेकिन इसका अर्थ यह है कि कटिबंधीय या अर्ध-कटिबंधीय देशों को अपनी खाद्य सुरक्षा का त्याग करना होगा।
भारत जैसे देश में खाद्य सुरक्षा के लिए, खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता जरूरी है। खाद्यान्नों का आयात घरेलू खाद्यान्न उत्पादन की जगह नहीं ले सकता है और इसके कारण अनेक हैं। पहला तो यही कि जब भी कोई भारत जैसा विशाल देश खाद्यान्न के आयात के लिए विश्व बाजार में उतरता है, विश्व बाजार में कीमतें तेजी से बढ़ती हैं और यह आयातों को बेहिसाब महंगा बना देता है। दूसरे, इस तथ्य के ऊपर से कि हो सकता है कि इस तरह के आयातों का भुगतान करने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा देश के हाथ में नहीं हो, यह भी बहुत मुमकिन है कि ऐसे बढ़े-चढ़े दाम पर आयातित खाद्यान्न खरीदने के लिए जनता के पास पर्याप्त क्रय शक्ति ही नहीं हो। तीसरे, चूंकि अतिरिक्त खाद्यान्न साम्राज्यवादी देशों के ही हाथों में है, ऐसे बढ़े-चढ़े दाम पर खाद्यान्न खरीदने के लिए भी, साम्राज्यवाद की कृपा की जरूरत होगी। वास्तव में, नाजुक मौके पर किसी देश को खाद्यान्न से वंचित करना, साम्राज्यवाद के हाथों में एक बहुत ही ताकतवर हथियार है, जिसका सहारा लेकर वे अपने खाद्यान्नों के आयात पर निर्भर किसी भी देश को, डरा-धमकाकर उससे अपनी मांगें मनवा सकते हैं।
याद रहे कि यह सब सिर्फ काल्पनिक आशंकाओं का मामला नहीं है। 1950 के दशक के उत्तरार्ध से भारत, पीएल-480 के अंतर्गत गेहूं का आयातक बना रहा था। 1965-66 तथा 1966-67 में, दो बहुत ही खराब फसलों के बाद, जब खास तौर पर बिहार में अकाल के हालात पैदा हो गए थे, भारत को खाद्यान्न के आयात के लिए अमेरिका के दरवाजे पर करीब-करीब याचक बनाकर खड़ा कर दिया गया था। करीब-करीब शब्दश: ‘जल पोतों से रसोई तक’ भोजन पहुंचाए जाने की नौबत आ गई थी। ऐसे हालात में ही हरित क्रांति लायी गई थी। वास्तव में हमारा देश तो अब भी, सभी के लिए पर्याप्त खाद्यान्न मुहैया कराने जितना खाद्यान्न पैदा करने के लिहाज से आत्मनिर्भर होने से दूर है। उल्टे, जनता के हाथों में क्रय शक्ति को इतनी बुरी तरह से निचोड़ा गया है कि, हमारे देश के लोगों की गिनती दुनिया में सबसे भूखे लोगों में होने के बावजूद, भारत नियमित रूप से तथा खासी बड़ी मात्रा में अनाज के निर्यात कर रहा है। 1966-67 के बाद से हमारे देश में मंडियों के मार्फत न्यूनतम समर्थन मूल्य, खरीदी मूल्य, निकासी मूल्य, सरकारी खरीद की विशद व्यवस्था, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था तथा खाद्य सब्सिडियों की व्यवस्था कायम की गई थी, जो सुनिश्चित करने की कोशिश करती है कि कृषि उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं, दोनों के हितों में तालमेल बैठाया जाए और देश पर्याप्त खाद्यान्न पैदा करे, ताकि आयातों की कोई जरूरत ही नहीं रहे। यह समूची व्यवस्था ही नव-उदारवाद से बेमेल है। इसीलिए, अचरज की बात नहीं है कि इसमें कतर-ब्योंत की जाती रही है।
साम्राज्यवाद ने इस व्यवस्था को खत्म कराने की सभी संभव कोशिशें की हैं। इसकी सबसे खुली कोशिश विश्व व्यापार संगठन के दोहा चक्र पर केंद्रित वार्ताओं में हुई थी, जहां अमेरिका दलील दे रहा था कि भारत में पूर्व-घोषित कीमत पर सरकारी खरीद की जो व्यवस्था है, वह तो मुक्त व्यापार के सिद्धांतों के ही खिलाफ है और उसे समेटा जाना चाहिए। बेशक, अब तक भारत में कोई सरकार इतनी दब्बू या नासमझ नहीं थी कि इस साम्राज्यवादी दबाव के सामने घुटने टेक देती और इसके चलते दोहा चक्र में गतिरोध पैदा हो गया। लेकिन, दु:ख का विषय है कि अब पहली बार हमारे देश में ऐसी सरकार आई है जो इस मुद्दे पर साम्राज्यवाद का सामना ही नहीं करना चाहती। वह देश को पीछे लौटाकर औपनिवेशिक दौर में ले जा रही है, जब प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन घट रहा था क्योंकि खेती की जमीनों को निर्यात फसलों की ओर मोड़ा जा रहा था। सरकार वास्तव में साम्राज्यवादी एजेंडा को ही आगे बढ़ा रही है।
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