महिला कैदी : बढ़े सुविधाओं का दायरा
देशभर की जेलों में महिला कैदियों की संख्या दयनीय है। सजायाफ्ता गर्भवती महिला कैदियों की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है।
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राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 1,339 जेलों में 1,732 महिला कैदी अपने 1,999 बच्चों के साथ रह रही हैं। इनमें 1,376 अंडरट्रायल हैं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि देश में कुल महिला जेलों की संख्या केवल 24 है। इनमें 2019 तक महिला कैदियों की संख्या बढ़कर 651 हो गई। कई राज्य हैं जहां केवल एक महिला जेल है। इनमें यूपी, प. बंगाल और महाराष्ट्र प्रमुख हैं। जाहिर है इन राज्यों में महिला कैदियों को सामान्य कारागार में ही रखा जाता है।
हाल के वर्षो में जेल में महिला कैदियों की संख्या बढ़ी है। लेकिन कारावास के भीतर उन्हें समायोजित करने संबंधी विधि-व्यवस्था पुराने ढर्रे पर ही चल रही है। महिला कैदियों को लेकर न तो कोई एकीकृत व्यवस्था है और न ही महिला विशेष जेलों की अवधारणा। इसी अनदेखी के चलते महिला जेलों की संख्या अब तक चौबीस को पार नहीं कर सकी है। वहां भी उन्हें स्वास्थ्य, सुरक्षा और प्रजनन संबंधी तमाम मुश्किलों से दो-चार होना पड़ता है। वैसे भी देश की अधिकतर जेलों में क्षमता से अधिक कैदी हैं, जहां बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। पेयजल, साफ-सफाई, चिकित्सकीय सुविधाओं की कमी, शौचालयों का अभाव ऐसे बिंदु हैं, जहां त्वरित कार्यवाही की जरूरत है। ऐसे में महिला कैदियों की मानसिक और शारीरिक त्रासदी का अंदाजा लगाया जा सकता है। अन्य मौलिक सुविधाओं से इतर स्वास्थ्य सुविधाओं की बात की जाए तो हालात और भी भयावह हैं। दिसम्बर, 2018 तक 3,220 की जगह केवल 1,914 मेडिकल स्टाफ ही इन जेलों में तैनात थे जो कुल क्षमता का करीब दो-तिहाई हिस्से से भी कम है। हैरत की बात है कि पूरे देश की जेलों में केवल 667 एंबुलेंस ही उपलब्ध हैं। पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में तो एक भी एंबुलेंस नहीं है। सामान्य उपचार केंद्रों की भी किल्लत है।
गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए ज्यादातर कैदियों को बड़े अस्पताल जाना पड़ता है। महिला कैदियों को महावारी, गर्भावस्था, पीसीओडी, जननांग संक्रमण आदि से जुड़ी प्रारंभिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जेल प्रशासन के आसरे रहना होता है। जेल मैनुअल के नियमानुसार महिला कैदी को जेल में रखने से पूर्व उसका प्रेगनेंसी टेस्ट किया जाना जरूरी है। गर्भवती होने पर उसकी बुनियादी जरूरतों का ख्याल तथा बच्चे के जन्म तक उचित देखभाल की सिफारिश की गई है। लेकिन ज्यादातर मामलों में अनदेखी की जाती है। हालांकि जेल नियम के अनुसार छह साल तक के बच्चों को ही मां के साथ जेल में रहने की इजाजत है। इस लिहाज से 1-6 वर्ष के बच्चों को समुचित देखभाल की दरकार होगी। विडंबना है कि देश की सत्तर प्रतिशत जेलों में इन बच्चों के लिए न तो पालनाघर हैं, और न ही प्ले स्कूल। कैदी मांओं की अनदेखी से अजन्मे शिशु पर विपरीत प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। जाहिर है कि पोषण से वंचित जच्चा से जन्मा बच्चा कुपोषित और रुग्ण होगा जिससे बाद में स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिभार ही बढ़ेगा।
बच्चे राष्ट्र की नींव होते हैं। कल्याणकारी राज्य का कर्त्तव्य है कि नागरिकों को शैक्षणिक और स्वास्थ्य संबंधी नागरिक सुविधाएं मुहैया कराए। स्वस्थ माहौल में ही किसी बच्चे का सर्वागीण विकास संभव है। मानसिक और रचनात्मक विकास के लिए बच्चे का सेहतमंद होना बहुत जरूरी है। रिपोर्ट बताती है कि 2018-19 में पूरे देश में कैदियों पर 1,776 करोड़ रु पये खर्च किए गए जो कुल खर्च का केवल 33.61 प्रतिशत है। स्पष्ट है कि कैदियों की जरूरतों और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं लचर वित्त प्रबंधन की शिकार हैं। महिला कैदी किसी कुव्यवस्था की शिकार न हों। सम्मान से जेलों में समय बिताएं। इसके लिए व्यवस्था परिवर्तन की तत्काल जरूरत है। खासकर गर्भवती महिलाओं के लिए विशेष ध्यान देने आवश्यकता है। बेहतर होगा कि राज्य बाल संरक्षण आयोग ऐसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, भरण-पोषण का जिम्मा उठाए। साथ ही, उन्हें हॉस्टल भेजने तथा उनके स्कूल में दाखिले की भी जिम्मेदारी उठाए। मानसिक पीड़ा से गुजर रही कैदियों के लिए बेहतर काउंसलिंग की व्यवस्था हो, इसके लिए भी समेकित प्रयास किए जाएं।
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