लोजपा : दांव से दिलचस्प हुई लड़ाई
चुनाव आयोग की घोषणा के बाद बिहार विधानसभा चुनाव की जमीनी जंग प्रारंभ हो गई है। दो महागठबंधनों ने भी लगभग अपनी-अपनी रणनीति स्पष्ट कर दी है।
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एक ओर राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (राजग) तो दूसरी ओर महागठबंधन अपनी-अपनी साथी पार्टयिों के साथ चुनाव मैदान में उतर चुके हैं। सीटों को लेकर जो गतिरोध था, वह लगभग समाप्त हो चुका है। इस बार वाली बिहार की सियासी जंग इसलिए थोड़ी भिन्न है कि बहुत दिनों के बाद राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ मिलकर एकीकृत वाम दल चुनाव लड़ रहे हैं। इससे पहले वाम पार्टयिों का कोई न कोई धड़ा अपनी मनमानी करता रहा है, लेकिन इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव वाम गठबंधन की प्रयोगशाला के रूप में उभर कर सामने आया है। वाम दल आगे कितने संगठित रहेंगे, यह तो भविष्य बताएगा लेकिन इस बार बिहार चुनाव में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी से लेकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) तक इकट्ठे चुनाव लड़ने को मजबूर हैं। कह सकते हैं कि इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव वाम दलों के लिए एक प्रयोग है।
यह चुनाव इसलिए भी थोड़ा भिन्न है कि राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की पुरानी साथी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने ऐन मौके पर राजग से कन्नी काट ली है। चुनांचे अकेले मैदान में उतरने की घोषणा कर दी है। हालांकि लोजपा के नेता चिराग पासवान ने कहा है कि जहां भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार होंगे वहां वे अपने उम्मीदवार खड़े नहीं करेंगे लेकिन जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के उम्मीदवार जहां मैदान में होंगे वहां वे अपना उम्मीदवार खड़े करेंगे। आम तौर पर लोजपा की रणनीति लोगों की समझ से परे है लेकिन जानकार इसकी गहराई से पड़ताल कर रहे हैं। वैसे भाजपा के आधिकारिक नेताओं ने लोजपा की इस घोषणा को गठबंधन धर्म के विरुद्ध बताया है, लेकिन केंद्र सरकार पर इस बात का कोई असर नहीं दिख रहा है। संभवत: भाजपा के रणनीतिकार इस योजना पर काम कर रहे हैं कि अगली सरकार उनके नेतृत्व में बने। इसके लिए जदयू का कमजोर होना जरूरी है। यदि जदयू ज्यादा सीटें जीतती है, तो नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे। यदि जदयू की सीटें कम होती हैं, तो भाजपा अपने नेतृत्व में सरकार बनाने का दावा ठोकेगी। इसके लिए उसे कुछ विधायकों की जरूरत होगी तो उसकी पूर्ति लोजपा के विधायक कर देंगे। लोजपा के नेता चिराग पासवान उपमुख्यमंत्री बनकर भाजपा के छोटे भाई की भूमिका में आ जाएंगे।
यदि ऐसा हुआ तो नीतीश कुमार एक बार फिर अपनी रणनीति बदल सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में वे भाजपा का समर्थन करने के बदले महागठबंधन का समर्थन करना बेहतर समझेंगे। त्याग का परिचय देते हुए तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बना देंगे। साथ ही साथ अपने किसी खास दलित नेता को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी थमा कर बिहार में सुपर मुख्यमंत्री की भूमिका में आ जाएंगे। इसके लिए उन्होंने डॉ. अशोक चौधरी को पहले से तैयार कर रखा है। लोजपा की घोषणा के बाद बिहार की राजनीति बहुत तेजी से बदलने लगी है। बदलती हुई परिस्थिति में कई बातें सामने आना अभी बाकी है। हालांकि अभी अनुमान ही लगाया जा रहा है, लेकिन लोजपा की घोषणा के बाद भाजपा की स्थिति पर भी गौर करने की जरूरत है। वैसे इन दिनों लोजपा की कमान पूरे तौर पर चिराग के हाथ में है और चिराग पासवान पूरी तरह भारतीय जनता पार्टी की ओर झुके हुए लग रहे हैं। विगत कुछ दिनों में उन्होंने अपने आप को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ भी जोड़ने की पूरी कोशिश की है। इससे इस अनुमान को बल मिलने लगा है कि चिराग पासवान अब अपने परिवार द्वारा खड़ी की गई पारंपरिक राजनीतिक विरासत से कुछ हटकर काम करने की मन:स्थिति में हैं। इसका वे पहले भी संकेत दे चुके हैं। चिराग पासवान को पता है कि भाजपा के पास विशाल सांगठनिक क्षमता है। इसका लाभ उन्हें मिल सकता है और वे भाजपा की सांगठनिक क्षमता का लाभ उठा बिहार के मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं।
चिराग या फिर भाजपा, नीतीश या फिर तेजस्वी, इस बार किसकी रणनीति कितनी सफल होगी, यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही स्पष्ट हो पाएगा लेकिन लोजपा के अकेले चुनाव मैदान में कूदने से बिहार विधानसभा का वर्तमान चुनाव थोड़ा रोचक जरूर हो गया है। वैसे नीतीश कुमार राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। उनकी तुलना चाणक्य से की जाती है। चाणक्य से तुलना करना स्वाभाविक भी है। उनकी पार्टी के पास संगठन का कोई आधार नहीं है, नीतीश कुमार के पास जातिगत वोट बैंक भी नहीं है। बावजूद इसके प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वे विगत 15 वर्षो से बिहार की सत्ता पर काबिज हैं। नीतीश कुमार का यह राजनीतिक कौशल ही तो है। हालांकि हर विधानसभा चुनाव में उन्होंने विशेष प्रकार की चुनौतियों का सामना किया है। पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था लेकिन बाद में राजद के साथ गठबंधन तोड़ रातोंरात भाजपा के साथ हो लिए थे। सच पूछिए तो पिछली दफा न तो भाजपा जीती थी और न ही नीतीश कुमार जीते थे। असली जीत तो राजद की हुई थी। उस चुनाव में राजग गठबंधन को मात्र 58 सीटें मिली थीं जबकि राजद को 80 सीटें मिली थीं। नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को 71 सीटें मिलीं और कांग्रेस को 27 सीटें मिली थीं। वोट प्रतिशत के मामले में भी महागठबंधन मजबूत था। हालांकि 2019 के लोक सभा चुनाव में महागठबंधन की हालत खराब रही और उसे एक भी सीट नहीं मिली। इसी ताकत के आधार पर भाजपा इस बार प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा कर रही है लेकिन झारखंड में उसे मुंह की खानी पड़ी है। फिलहाल, इंतजार करना होगा। देखते हैं कि बिहार असेंबली के चुनाव में सियासी ऊंट इस बार किस करवट वैठता है!
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