आरटीआई : और मजबूत बनाने की जरूरत

Last Updated 12 Oct 2020 01:15:51 AM IST

सरकारी तंत्र और सत्ता प्रतिष्ठानों में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म कर जनसामान्य को पारदर्शी व्यवस्था मुहैया कराने के लिए सूचना के अधिकार (आरटीआई) को दुनिया भर में मुख्य हथियार बनाया गया है।


आरटीआई : और मजबूत बनाने की जरूरत

सरकारी तंत्र में पारदर्शिता लाने के लिए लागू किए गए कानूनों के माध्यम से वैश्विक स्तर पर जारी इस मुहिम को पिछले 254 साल से आगे बढ़ाया जा रहा है।  हालांकि दुनिया के लगभग सभी देशों में सरकारें भ्रष्टाचार निवारक पारदर्शिता कानूनों (ट्रांसपेरेंसी लॉ) को प्रभावी बनाने के नित नये उपाय कर रही है, इसके बावजूद व्यवस्थागत भ्रष्टाचार का ग्राफ लगातार ऊपर जा रहा है। खासकर भारत में लगातार स्थिति में आती गिरावट चिंता का विषय बन गई है।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत, पारदर्शिता के मामले में वैश्विक स्तर पर खिसक कर छठे पायदान पर आ गया है। इस मामले में साल 2011 में भारत दूसरे स्थान पर था। वहीं 2016 में भारत की रैंकिंग घटकर चौथे पायदान पर आ गई और 2018 में यह स्थिति छठे पायदान पर पहुंच गई। पिछले दो साल में भारत की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है।  आरटीआई कानून जैसे तमाम ट्रांसपेरेंसी लॉ दुनिया भर में लागू करने के ढाई सदी से अधिक समय के अनुभव से साफ जाहिर है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकारों की नीति और नीयत में एकरूपता नहीं है। अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया का पहला ‘ट्रांसपेरेंसी लॉ’ 1766 में स्वीडन साम्राज्य ने लागू किया था। इसके बाद 1949 में स्वीडन ने ही लगभग डेढ़ सदी के अपने अनुभव के आधार पर नये स्वरूप में ट्रांसपेरेंसी लॉ को लागू किया। इसके साथ ही सरकारी तंत्र में पारदर्शिता लाने में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सूचना के अधिकार की अवधारणा ने जन्म लिया।

इस अवधारणा को मूर्त रूप देते हुए फिनलैंड ने 1951 में स्वीडन के ट्रांसपेरेंसी लॉ को अपने देश में लागू किया। आरटीआई की बहस यूरोप से 1966 में अमेरिका पहुंची और अमेरिकी सरकार ने चौथे नागरिक अधिकार के रूप में आरटीआई को मान्यता प्रदान की। इसके साथ ही वैश्विक स्तर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों ने सामाजिक, राजनीतिक और नागरिक अधिकारों की श्रृंखला में सूचना के अधिकार को चौथे सिविल राइट के रूप में पारदर्शी व्यवस्था का हथियार बनाने की पहल तेज कर दी। नतीजा, अब तक 122 देश आरटीआई कानूनों को अपने अपने तरीके से लागू कर चुके हैं। हालांकि जानकारों को हैरत इस बात की है कि अब तक आरटीआई के दायरे में दुनिया की 90-92 प्रतिशत आबादी आने के बावजूद वैश्विक स्तर पर सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार कम होने के बजाय बढ़ क्यों रहा है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की भारत इकाई के प्रमुख एस आर बाधवा का मानना है कि इसके पीछे मुख्य वजह सरकारों की कथनी और करनी में अंतर है। उनका मानना है कि एक तरफ दुनिया भ्रष्टाचार निवारक उपायों को सुनिश्चित करने के प्रयासों के 254 वें साल में प्रवेश कर गई है और भारत आरटीआई कानून लागू करने की 15वीं सालगिरह मना रहा है। ऐसे समय में जनसामान्य को साफ-सुथरी शासन व्यवस्था न मिल पाने पर बहस होना, व्यवस्थाओं को लागू करने में खामियों का नतीजा है। भारत के ही आंकड़ों से इस बात को समझा जा सकता है कि पिछले 15 सालों में अब तक महज ढाई फीसद नागरिकों ने आरटीआई का इस्तेमाल किया। सरकार ने केंद्र और राज्य के स्तर पर सूचना आयोगों का गठन तो कर दिया है, लेकिन अधिकांश राज्य सरकारें इन आयोगों को कानूनी तौर पर सशक्त बनाने की मंशा ही नहीं रखती है। इसी का नतीजा है कि अधिकांश राज्य सरकारें सूचना आयोग के कामकाज की वार्षिक रिपोर्ट भी नियमित तौर पर प्रकाशित नहीं कर रहीं है।
इसके उलट स्वीडन, बेल्जियम और फिनलैंड जैसे पारदर्शिता के चैंपियन देशों में आरटीआई की दुरुस्त व्यवस्था ही उनके सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण का मुख्य आधार है।  हालांकि भारत में इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन भागीदारी को मजबूत बनाने में आरटीआई आंदोलन की अहम भूमिका रही। इसी के परिणामस्वरूप भारत में 12 अक्टूबर 2005 को आरटीआई कानून लागू हो सका। यह बात दीगर है कि इसे लागू करने में सरकारों की नीति और नीयत में अंतर को देखते हुए यह कानून वांछित परिणामों से अभी काफी दूर है। ऐसे में आरटीआई के डेढ़ दशक के अनुभव के आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि देश के सूचना तंत्र को स्वतंत्र एवं तटस्थ न्यायिक व्यवस्था की तर्ज पर ही आगे बढ़ाना कारगर उपाय हो सकता है।

निर्मल यादव


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