बदरीनाथ : सवालों के घेरे में मास्टर प्लान

Last Updated 29 Sep 2020 03:10:07 AM IST

हिमालयी सुनामी के नाम से भी पुकारी जाने वाली 2013 की केदारनाथ महा आपदा से तबाह केदारनाथ धाम के पुननिर्माण कार्य के साथ ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रबल इच्छानुसार अब सनातन धर्मावलम्बियों के चार सर्वोच्च धर्मस्थलों में से एक बदरीनाथ को स्र्माट धाम बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है, लेकिन इसके लिये जो मास्टर प्लान राज्य सरकार ने बनाया है; उस पर काम शुरू होने से पहले ही सवाल खड़े होने लग गए हैं।


बदरीनाथ : सवालों के घेरे में मास्टर प्लान

पहली आशंका इस पवित्र धाम को पर्यटन स्थल में बदलने की तथा दूसरी आशंका अति संवेदनशील पारितंत्र वाले इस उच्च हिमालयी क्षेत्र में सीमेंट कंकरीट का इतना बड़ा ढांचा खड़ा करने को लेकर है।
मंदिर से जुड़े लोगों को यह भी आशंका है कि एवलांच, भूस्खलन एवं भूकंपों की कई मार खा चुकी बदरीनाथपुरी की संवेदनशीलता अनावश्यक छेड़छाड़ से कहीं अधिक बढ़ जाएगी, जिससे कभी भी केदारनाथ की 2013 की जैसी आपदा की पुनरावृत्ति हो सकती है। चिपको आंदोलन के जरिये विश्व में पर्यावरण संरक्षण की अलख जगाने वाले पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट का कहना है कि बदरीनाथ में यात्री सुविधाओं को बढ़ाने के साथ ही आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित चौथे धाम बद्रिकाश्रम की पौराणिकता को छेड़े बिना उसके कायापलट के प्रयासों का तो स्वागत है, मगर इस उच्च हिमालयी क्षेत्र में ऐसा कोई काम नहीं होना चाहिए, जिससे इसका पारितंत्र ही गड़बड़ा जाए और लोग तीर्थाटन की जगह पर्यटन के लिए यहां पहुंचें। भट्ट का कहना है कि बदरीनाथ हो या फिर चारों हिमालयी धामों में से कहीं भी क्षेत्र विशेष की धारक क्षमता (कैरीयिंग कैपेसिटी) से अधिक मानवीय भार नहीं पड़ना चाहिए।

अन्यथा हमें केदारनाथ जैसी आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। इससे पहले 1973-74 में भी पुरातात्विक विशेषज्ञों, भूविज्ञानियों, शिल्पास्त्रियों और धार्मिक प्रतिनिधियों से पूछे बिना बसंत कुमार बिड़ला की पुत्री के नाम पर बने जयश्री ट्रस्ट ने 70 लाख रुपये की लागत से बदरीनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कर उसे नया स्वरूप देने का प्रयास किया था। उस समय सीमेंट कंकरीट का प्लेटफार्म बनने के बाद 22 फुट ऊंची दीवार भी बन चुकी थी और आगरा से मंदिर के लिए लाल बालू के पत्थर भी पहुंच गये थे, लेकिन चिपको नेता चण्डी प्रसाद भट्ट एवं गौरा देवी तथा ब्लाक प्रमुख गोविन्द सिंह रावत आदि के नेतृत्व में चले स्थानीय लोगों के आंदोलन के कारण उत्तर प्रदेश की तत्कालीन हेमवती नन्दन बहुगुणा सरकार ने निर्माण कार्य रुकवा दिया था।
इस संबंध में 13 जुलाई 1974 को उत्तर प्रदेा विधानसभा में मुख्यमंत्री बहुगुणा ने वित्तमंत्री नारायण दत्त तिवारी की अध्यक्षता में हाइपावर कमेटी की घोषणा की थी, जिसमें भूगर्भ विभाग के विशेषज्ञों के साथ ही भारतीय पुरातत्व विभाग के तत्कालीन महानिदेाक एम.एन. देशपांडे भी सदस्य थे। कमेटी की सिफारिश पर सरकार ने निर्माण कार्य पर पूर्णत: रोक लगवा दी थी। तिवारी कमेटी ने बदरीनाथ की भूगर्वीय, भूभौतिकीय एवं जलवायु संबंधी तमाम परिस्थितियों का अध्ययन कर वहां अनावश्यक निर्माण से परहेज करने की सिफारिश की थी, लेकिन ताजा मास्टर प्लान तिवारी कमेटी की सिफारिशों तक नहीं पहुंच पाया। हजारों साल पहले जब यह मंदिर बना होगा तो तब भी स्थानीय भूगोल और भूगर्व की जानकारी लेने के साथ ही वहां की प्राकृतिक गतिविधियों के सदियों से गवाह रहे स्थानीय समुदाय की राय जरूर ली गई होगी। मंदिर के लिए नर पर्वत के सामने नारायण पर्वत की गोद में ऐसी जगह चुनी गई, जहां एयर बोर्न एवलांच सीधे मंदिर के ऊपर से निकल जाते हैं और बाकी एवलांच अगल-बगल से सीधे अलकनंदा में गिर जाते हैं।
ग्लेशियरों के रास्ते भी मंदिर की अगल-बगल से हैं। मंदिर और पर्वत की स्थिति आंख और भौं जैसी है और यह भौं रूपी पहाड़ी आंख जैसे मंदिर की रक्षा करती है। मंदिर की ऊंचाई भी हिमखण्ड स्खलनों को ध्यान में रखते हुए कम रखी गई है। मंदिर को अगर कुछ हद तक सुरक्षित मान भी लें मगर बदरीधाम केवल मंदिर तक सीमित न होकर 3 वर्ग किमी तक फैला हुआ है, जिसके 85 हेक्टेयर के लिए मास्टर प्लान बना है। इसका ज्यादातर हिस्सा एवलांच, ग्लेियर और भूस्खलन की जद में है। प्लान में नेत्र ताल के सौंदर्यीकरण का भी उल्लेख है, लेकिन स्थानीय लोगों को भी पता नहीं कि इस वाटर बॉडी का स्रोत क्या है। देखा जाए तो जब तक वहां के चप्पे-चप्पे का भूभौतिकीय, भूगर्वीय और जलवायु का डाटा तैयार नहीं किया जाता तब तक ऐसे मास्टर प्लान का कोई औचित्य नहीं है। अध्ययन भी कम-से-कम तीन शीत ऋतुओं के आधार पर होना चाहिए।

जयसिंह रावत


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