विश्लेषण : खतरनाक मोड़ पर स्वार्थ की लड़ाई

Last Updated 29 Sep 2020 03:13:15 AM IST

पिछले कुछ समय से अमेरिका और चीन के बीच जो तनाव दिख रहा है, उसके देखते हुए एक अवधारणा यह बनती दिख रही है कि दुनिया या तो शीत युद्ध के मुहाने पर पहुंच चुकी अथवा पहुंचने वाली है।


विश्लेषण : खतरनाक मोड़ पर स्वार्थ की लड़ाई

हालांकि अभी नाटो के मुकाबले में वारसा पैक्ट जैसा सैन्य संगठन सामने नहीं आया है और न ही दुनिया अभी वाशिंगटन और बीजिंग को उस रूप में देख रही है, जिस तरह से शीतयुद्ध काल में वाशिंगटन और मॉस्को को देखा गया था। हालांकि अमेरिका और चीन के बीच में लम्बे समय से ‘लव-हेट गेम’ चल रहा है इसलिए इस टकराव को शीतयुद्ध का संकेत माना जाए या फिर उच्चस्तरीय प्रहसन?
दोनों देशों के बीच तनाव की चर्चा संयुक्त राष्ट्र महासभा के 75वें सत्र में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और शी जिनपिंग के वक्तव्यों से उपजी प्रतिध्वनियों में कुछ हद तक महसूस की गई। डोनाल्ड ट्रंप ने चीन को कोरोना महामारी के प्रसार के लिए एक बार फिर जिम्मेदार ठहराया और इसके लिए चीन की जवाबदेही तय करने की बात कही। हालांकि जिनपिंग यह कहते दिखे कि चीन किसी भी देश के साथ शीत युद्ध में उतरने का कोई इरादा नहीं रखता है। कहीं जिनपिंग के इस वक्तव्य के जरिए अमेरिका को शीतयुद्ध की धमकी तो नहीं दे रहे थे? या फिर वचरुअल मंच को कुरुक्षेत्र की तरह प्रस्तुत करने वाला एक राजनीतिक ड्रामा था? ट्रंप का आरोप है कि चीन ने महामारी से जुड़ी सूचनाओं को छिपाया। अगर वह चाहता तो महामारी पर नियंत्रण पा सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। गौर करने वाली बात यह है कि इसके बावजूद दुनिया न ही उससे किनारा कर पाई और न उसके खिलाफ कोई कार्रवाई।

आखिर वजह क्या है? तो क्या इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि चीन के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका अकेला पड़ गया है। यदि ऐसा है, तो क्यों? इसलिए कि दुनिया अब चीन को महाशक्ति के रूप में स्वीकारने लगी है या फिर इसलिए अमेरिका अपने स्वार्थ की लड़ाई लड़ रहा है? आखिर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस के इस वक्तव्य के कुछ तो मायने होने ही चाहिए कि-महामारी के इस दौर में स्वार्थ की कोई जगह नहीं है। एक सवाल और भी है कि आखिर पूरी दुनिया को जिस प्रतिबद्धता के साथ एक वायरस से लड़ना चाहिए था, वह पापुलिज्म और नेशनलिज्म के विषयों उलझी क्यों दिख रही है? दुनिया को यह बात गम्भीरता से स्वीकार करनी चाहिए कि इन्हीं वजहों से वायरस के खिलाफ लड़ाई जटिल होती गई। यानी विचारधाराएं लड़ती रहीं और वायरस मनुष्यों को मारता रहा। इस पापुलिज्म और नेशनलिज्म नामक सिण्ड्रोम के शिकार तो दोनों ही देश हैं, फिर गलत कौन है? चीन तो स्पष्ट रूप से है, लेकिन अमेरिका को भी इस आरोप से मुक्त नहीं किया जा सकता क्योंकि जब अमेरिका को इस बीमारी के खिलाफ वैश्विक अभियान का नेतृत्व करना चाहिए था तब राष्ट्रपति ट्रंप अमेरिका फस्र्ट के सुराख से प्रतिबंध-प्रतिबंध की कौड़ियां खेल रहे थे। चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग ने महासभा को संबोधित करते हुए बेहद उदारवादी और प्रगतिशील, लेकिन एक महाशक्ति का आचरण निभाते दिखे।
वे संवाद को प्रमुखता देने वाले नेता के साथ-साथ युद्ध की संभावनाओं को समझने वाले एक सेनापति के रूप में दिखे, लेकिन दुनिया जानती है कि चीन सहअस्तित्ववाद पर भरोसा करने वाला नहीं है बल्कि वह एकध्रुवीय व्यवस्था में परमोच्चतावाद का प्रणोता है। यही वजह है कि वे अपने दो चेहरों के साथ लड़ाई जीतने के मुहाने तक पहुंच गए हैं। वैसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले दोनों के बीच दिखने वाले टकराव को समझने की जरूरत है। दरअसल, अमेरिका और चीन के बीच जो टकराव दिख रहा है वह सामान्य तौर पर ट्रेड, टैरिफ और टेक्नोलॉजी को लेकर है, लेकिन क्या सीधी सी दिखने वाली इस लड़ाई के पीछे असल पक्ष कुछ और है? क्या इसकी असल वजह दोनों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं और साम्राज्यिक विशेषताओं में निहित है? ट्रंप का अमेरिका फस्र्ट और जिनपिंग का चीन को ‘एडवान्स्ड सोशलिस्ट कंट्री’ बनाने का मंत्र, जो 2049 तक दुनिया की सबसे बड़ी सैनिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ताकत के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा, सीधे टकराव की असल वजहें हैं। यदि चीन इस स्थिति को प्राप्त कर लेता है तो अमेरिका दूसरे पायदान पर पहुंच जाएगा, जबकि ट्रंप उसे स्वर्ण युग में ले जाना चाहते हैं, जहां पूरी दुनिया को अमेरिका के इर्द-गिर्द सिमटना है। यानी टकराव सर्वोच्चता एवं एकाधिकारवाद का है।
फिलहाल वर्तमान समय में दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं उस स्थिति में पहुंच चुकी हैं जो न तो एक दूसरे का साथ छोड़ पा रही हैं और न ही साथ चल पा रही हैं। इन देशों और उनके नेताओं की महत्त्वाकांक्षाएं वर्तमान जरूरतों पर भारी पड़ती दिख रही हैं। दरअसल, अमेरिका बहुत लंबे समय से हाई टेक्नोलॉजी के मामले में विश्व चैंपियन रहा है, लेकिन बीते कुछ वर्षो या लगभग एक दशक में चीन ने भी कई तकनीकी क्षेत्रों में खासी प्रगति की है। कुछ में तो वह अमेरिका से भी आगे निकल गया है। अब अमेरिका को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। कोविड महामारी ने स्थितियां और जटिल एवं अनिश्चततापरक बना दी हैं। इन्हीं स्थितियों में डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिकी मतदाताओं को अपनी ओर आकषिर्त करना है क्योंकि अब चुनाव के लिए डेढ़ महीने से भी कम का समय बचा है।
उन्हें यह भलीभांति मालूम है कि चीन को वे इस समय जितना दोषी करार देंगे या करार देने में सफल हो जाएंगे उतने बड़े वे राष्ट्रवादी कहे जाएंगे। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए दोनों का टकराव खतरनाक होगा। कुछ वैश्विक नेता भी इस बात से चिंतित हैं। उनका मानना है कि आज दुनिया को अमेरिका और चीन के बीच प्रतियोगिता के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं होगा कि दुनिया में एक नया र्वल्ड ऑर्डर तय हो रहा है। यानी दुनिया सिरे से संगठित हो रही है और चीजें बदल रही हैं। डर यह है पुनर्सगठन और पुनर्सयोजन की यह प्रक्रिया न किस्म के द्वंद्वों को पैदा न कर दे जो मानव जीवन और वैश्विक शांति के लिए खतरनाक साबित हों। वैश्विक संस्थाओं और दुनिया की उभरती हुई शक्तियों को इसे गम्भीरता से देखना और समझना होगा।

डॉ. रहीस सिंह


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