उद्योग जगत : खत्म करनी होगी हताशा

Last Updated 28 Sep 2020 01:55:44 AM IST

कोविड-19 में चीन की संदिग्ध भूमिका के बाद उम्मीद जताई जा रही थी विदेशी निवेशक चीन से अपना कारोबार समेट कर भारत में भारी मात्रा में विनियोग करेंगे।


उद्योग जगत : खत्म करनी होगी हताशा

क्योंकि यहां श्रम सस्ता है और एक सशक्त प्रधानमंत्री देश चला रहे हैं। पर अभी तक इसके कोई संकेत नहीं है। दुनिया की मशहूर अमेरिकी मोटरसाइकिल निर्माता कंपनी ‘हाल्रे-डेविडसन’ जो 10-15 लाख कीमत की मोटरसाइकिलें बनाती है; भारत से अपना कारोबार समेट कर जाने की तैयारी में हैं।
पिछले दशक में भारत में तेजी से हुई आर्थिक प्रगति ने दुनिया के तमाम ऐसे निर्माताओं को भारत की ओर आकर्षित किया था, जिन्हें उम्मीद थी कि उनके महंगे उत्पादनों का भारत में एक बड़ा बाजार तैयार हो गया है। पर आज ऐसा नहीं है। व्यापार और उद्योग जगत के लोगों का कहना है कि नोटबंदी, जीएसटी व लॉकडाउन ने भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी है। लॉकडाउन हटने के बाद से देश के छोटे-बड़े हर नगर में बाजारों को पूरी तरह खुले दो महीने हो चुके हैं फिर भी बाजार से ग्राहक नदारद है। रोजमर्रा की घरेलू जरूरतों जैसे राशन और दवा आदि को छोड़ कर दूसरी सब दुकानों में सन्नाटा पसरा है। सुबह से शाम तक दुकानदार ग्राहक का इंतेजार करते हैं पर उन्हें निराशा हाथ लगती है, जबकि बिजली बिल, दुकान का किराया, व कर्मचारियों का वेतन पहले की तरह ही है। यानी खच्रे पहले जैसे और आमदनी गायब। इससे व्यापारियों और छोटे कारखानेदारों में भारी निराशा व्याप्त है।

एक सूचना के अनुसार अकेले बेंगलुरू शहर में हजारों छोटे दुकानदार दुकानों पर ताला डाल कर भाग गए हैं। क्योंकि उनके पास किराया और कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं। होटल, पर्यटन, वायुसेवा, परिवहन आदि क्षेत्रों में तो भारी मंदी व्याप्त है ही। हर वर्ष पितृपक्ष के बाद शादियों और त्योहारों का भारी सीजन शुरू हो जाता था, मांग में तेजी से उछाल आता था, जहां आज पूरी तरह अनिश्चितता छाई है। भवन निर्माण क्षेत्र का तो और भी बुरा हाल है। पहले जब भवन निर्माताओं ने लूट मचा रखी थी तब भी ग्राहक लाइन लगा कर खड़े रहते थे। वहीं आज ग्राहक मिलना तो दूर भवन निर्माताओं को अपनी डूबती कंपनियां बचाना भारी पड़ रहा है। सरकार का यह दावा सही है कि भवन निर्माण के क्षेत्र में काला धन और रित के पैसे का बोलबाला था। जो मौजूदा सरकार की कड़ी नीतियों के कारण खत्म हो गया है। मगर चिंता की बात यह है कि सरकार की योजनाओं के क्रियान्वयन में कमीशन और रित कई गुना बढ़ गई है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के आकलन के अनुसार भी भारत में भ्रष्टाचार घटा नहीं, बढ़ा है। जिस पर मोदी जी को ध्यान देना चाहिए। सरकार के आर्थिक पैकेज का देश की अर्थव्यवस्था पर उत्प्रेरक जैसा असर दिखाई नहीं दिया। कारोबारियों का कहना है कि सरकार बैंकों से कर्ज लेने की बात करती है पर कर्ज लेकर हम क्या करेंगे जब बाजार में ग्राहक ही नहीं है। लॉकडाउन के बाद करोड़ों लोगों की नौकरी चली गई है। उनको आज परिवार पालना भारी पड़ रहा है।
ऐसे में बाजार में मांग कैसे बढ़ेगी? मांग ही नहीं होगी तो कर्ज लेकर व्यापारी या कारखानेदार और भी गड्ढे में गिर जाएंगे। क्योंकि आमदनी होगी नहीं और ब्याज सिर पर चढ़ने लगेगा। व्यापारी और उद्योगपति वर्ग कहना ये है कि वे न केवल उत्पादन करते हैं, बल्कि सैकड़ों परिवारों का भी भरण-पोषण भी करते हैं, उन्हें रोजगार देते हैं। मौजूदा आर्थिक नीतियों और कोविड-19 ने उनकी हालत इतनी पतली कर दी है कि वे अब अपने कर्मचरियों की छंटनी कर रहे हैं। इससे गांवों में बेरोजगारी और पढ़े-लिखे युवाओं में हताशा फैल रही है। लोग नहीं सोच पा रहे हैं कि ये दुर्दिन कब तक चलेंगे और उनका भविष्य कैसा होगा?
मीडिया के दायरों में अक्सर ये बात चल रही है कि मोदी सरकार के खिलाफ लिखने या बोलने से देशद्रोही होने का ठप्पा लग जाता है। हमने इस कॉलम में पहले भी संकेत किया था कि आज से 2500 वर्ष पहले मगध सम्राट अशोक और उसके जासूस भेष बदलकर जनता से अपने बारे में राय जानने का प्रयास करते थे। जिस इलाके में विरोध के स्वर प्रबल होते थे, वहीं राहत पहुंचाने की कोशिश करते थे। मैं समझता हूं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मीडिया को यह साफ संदेश देना चाहिए कि अगर वे निष्पक्ष और संतुलित होकर जमीनी हकीकत बताते हैं, तो मोदी सरकार अपने खिलाफ टिप्पणियों का भी स्वागत करेगी। इससे लोगों का गुबार बाहर निकलेगा और समाधान की तरफ सामूहिक प्रयास से कोई रास्ता निकलेगा। एक बात और महत्त्वपूर्ण है।
इस सारे माहौल में नौकरशाही को छोड़ कर शेष सभी वर्ग खामोश बैठा लिए गए हैं, जिससे नौकरशाही का अहंकार, निरंकुशता और भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है। ये खतरनाक स्थिति है, जिसे नियंत्रित करना चाहिए। हर क्षेत्र में बहुत सारे योग्य व्यक्ति हैं जो चुपचाप अपने काम में जुटे रहे हैं। उन्हें ढूंढकर बाहर निकालने की जरूरत है और उन्हें विकास के कार्यों की प्रक्रिया से जोड़ने की जरूरत है। तब कुछ रास्ता निकलेगा। केवल नौकरशाही पर निर्भर रहने से नहीं।

विनीत नारायण


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