चीन से विवाद : आक्रामक नीति की जरूरत

Last Updated 02 Sep 2020 12:11:44 AM IST

चीन आधुनिक दौर की युद्ध कला का वह माहिर खिलाड़ी है, जो युद्धोन्माद की मनोवैज्ञानिक हिंसा की बदौलत दुनिया को ब्लैकमेल करता रहा है।


चीन से विवाद : आक्रामक नीति की जरूरत

भारत वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन की युद्धोन्माद की कार्रवाइयों का लगातार सामना कर रहा है और इससे दोनों देशों के बीच अविश्वास बढ़ता जा रहा है।
दरअसल, पूर्वी लद्दाख के इलाके में चीन की सेना की घुसपैठ से वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन के बीच कूटनीतिक स्तर पर शांति बहाली की कोशिशों को लेकर संशय बढ़ गया है। इस साल जून में गलवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प के बाद सैन्य और राजनियक स्तर पर इस मामलें को सुलझाने की बात कूटनीतिक स्तर पर लगातार की जा रही है, लेकिन हालिया घटनाक्रम से ऐसा लगता है की चीन से सीमा विवाद सुलझाने के लिए किसी सुदृढ़ रणनीति पर काम करने की जरूरत है। भारत और चीन के बीच साढ़े तीन हजार किलोमीटर से ज्यादा वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति की स्थापना के लिए राजनियक और सैन्य स्तर पर बातचीत के कई दौर हो चुके हैं, जिनमें लेफ्टिनेंट जनरल स्तर की वार्ता भी शामिल है लेकिन इसके ठोस नतीजे सामने नहीं आए हैं।  ऐसा लगता है कि चीन की भारत के साथ सीमा विवाद सुलझाने की मंशा है ही नहीं और वह बातचीत के साथ दबाव की दोहरी रणनीति पर काम कर रहा है।

चीन की बातचीत की पेशकश उसकी पारम्परिक नीति का ही हिस्सा है, जिसके अंतर्गत प्रतिद्वंद्वी पर सैन्य बढ़त हासिल करके मनौवैज्ञानिक बढ़त हासिल कर ली जाए और इसके बाद अपने हितों के अनुसार संतुलन साधने के लिए मजबूर कर दिया जाए। इस नीति को वह पहले भी भारत के खिलाफ आजमाता रहा है। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद का प्रश्न समय के साथ जटिल होता जा रहा है। आधुनिक चीन उन नक्शों पर अपनी सीमाओं को सुलझाने को प्रतिबद्ध नजर आता है, जिन नक्शों पर इतिहास ने उन्हें छोड़ दिया था। इस काम में आधी शताब्दी से अधिक समय लगा। 21 वीं सदी के पहले दशक के अंत तक चीन ने अपने 12 राष्ट्रीय पड़ोसियों में से 10 के साथ सीमा समझौते पर परस्पर सहमति से बातचीत कर समाधान निकाल लिया, अपवाद थे भारत और भूटान। पिछले कुछ सालों में भारत ने पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में विकास के लिए कई कार्य किए हैं और चीन के लिए यह असहनीय है।  चीन से सीमा विवाद के चलते और पूर्वोत्तर की सुरक्षा चुनौतियों से जूझते भारत ने अब अपनी सामरिक स्थिति को मजबूत किया है और रणनीतिक परियोजना के जरिए ब्रह्मपुत्र नदी पर बोगीबिल पुल का निर्माण पूर्ण कर लिया है, जो  ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिण तट को अरु णाचल प्रदेश के सीमावर्ती धेमाजी जिले में सिलापथार के साथ जोड़ेगा। पूर्वोत्तर में भारत के विकास कार्यों को लेकर चीन दबाव में है, लेकिन भारत के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि अन्य तरीकों से भी चीन पर दबाव डालने की नीति पर काम करने की जरूरत है।
चीनी की भारत विरोधी नीति का यह आलम है कि वीजा विवाद, कश्मीर, पाक प्रायोजित आतंकवाद, सीमा विवाद और एनएसजी में भारत के प्रवेश पर रोड़े अटकाने के बाद भी वह भारत का प्रमुख व्यापारिक साझेदार है और ‘विवाद छोड़ो, व्यापार करो’ की तर्ज पर उसने भारत के बाजारों पर कब्जा जमा लिया है। यही नहीं सुरक्षा के लिहाज से भी वह पाकिस्तान, श्रीलंका, बर्मा, नेपाल और मालद्वीप में मदद के जाल से भारत को घेर चुका है। इन सबके देखने में यह आया है कि भारत की चीन को लेकर नीति बेहद तटस्थ रही है और यह चीन के लिए मुफीद नजर आती है। मसलन वुहान लैब से निकले कोरोना विषाणु को लेकर यूरोपीय देशों ने चीन कि आलोचना करने से गुरेज नहीं किया वहीं भारत ने इस मामले में मौन साधे रखा, जबकि भारत की मुखरता से चीन बैकफुट पर आ सकता था। पिछले कुछ समय से चीन के विरोध को लेकर दुनिया भर में जो स्थिति बनी है, उसका नेतृत्व करने का भारत ने कभी साहस नहीं  दिखाया। चीन के भरोसेमंद साथी और भारत के पड़ोसी म्यांमार पर अमेरिकी असर बढ़ा है। सिंगापुर, फिलिपींस, इंडोनेशिया, थाईलैंड, ब्रुनेई, जापान, आस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया जैसे देशों की अमेरिका से बढ़ती सैन्य निकटता से चीन दबाव महसूस करता है। भारत ने इन राष्ट्रों से रणनीतिक साझेदारी के साथ ही आर्थिक संबंधों को मजबूत करने पर प्राथमिकता से ध्यान देना चाहिए, जिससे चीन को दबाव में लाने के साथ ही हमारी उसपर निर्भरता कम की जा सके।
इस समय भारत आर्थिक हितों के लिए जापान एवं अन्य  दक्षिण एशियाई राष्ट्रों की ओर देखे। इससे चीन पर न केवल हमारी निर्भरता खत्म होगी बल्कि चीन से निपटने के लिए यह बेहतर जवाब भी हो सकता है। वहीं चीन पर दबाव बनाएं रखने के लिए ताइवान से राजनीतिक संबंध स्थापित करने कि घोषणा की जा सकती थी, तिब्बत को लेकर भारत की नीति में परिवर्तन किया जा सकता था, लेकिन भारतीय नीति में ऐसी आक्रामकता का अभाव रहा। इस समय हांगकांग में लोकतांत्रिक आंदोलन को कुचला जा रहा है। अमेरिका और ब्रिटेन चीन का विरोध कर रहे हैं जबकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत से हांगकांग के लोगों के समर्थन में ऐसा कोई आक्रामक बयान सामने नहीं आया है। गलवान में चीन कि दादागिरी के बाद भारत को सुरक्षा परिषद की आपात बैठक बुलाकर चीन को घेरने का प्रयास करना था, जो भारत ने नहीं किया। जबकि सुरक्षा परिषद के अन्य सदस्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस भारत के इस रुख पर उसे समर्थन दे सकते थे।
तिब्बत को लेकर भी भारत को आक्रामकता के साथ आगे आना चाहिए। चीन से लगती सीमा पर सैन्य जमावड़े पर भारत ने राजनियक विरोध जताया होता तो हिंसक झड़प की आशंका नहीं बनती। यहां तक कि गलवान घाटी में 20 सैनिकों के मारे जाने के बाद देश से चीनी राजदूत को निकलने का निर्णय बेहद आक्रामक और प्रभावी हो सकता था। भारत को यह समझने की जरूरत है कि चीन की आक्रामकता का सामना करते हुए उसके साथ बातचीत की मेज पर बैठने से साम्यवादी ताकतें मजबूत ही होती हैं। भारत की नीतियों में चीन को लेकर कूटनीतिक स्तर पर आक्रामकता, सीमा पर सैन्य दबाव और अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन साधे जाने की आवश्यकता है। जाहिर है चीन से बातचीत की मेज पर जब तक उदार भारत होगा, समस्या बढ़ती जाएगी।

डॉ. ब्रह्मदीप अलूने


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