मुद्दा : जिम्मेदारियों के गिरते ‘पुल’
हादसों का जो मूल चरित्र है, उसमें किसी दुर्घटना के पीछे अनायास हुए किसी ऐसे परिवर्तन को देखा जाता है जो अनापेक्षित हो और जिसमें पूर्वानुमान लगाना मुमकिन ना हो।
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इसके बावजूद हादसों को इस नजर से परखा जाता है कि उसमें किसी लापरवाही, अनदेखी या भ्रष्टाचार की तो कोई भूमिका नहीं है। ऑडिट और जांच-पड़ताल में अक्सर खुलासा होता है कि हादसा ना तो अचानक हुआ और ना ही ऐसा था, जिसका अनुमान लगाना मुश्किल होता। यह पोल भी खुलती है कि हादसे के पीछे संबंधित विभागों की लापरवाही थी और करप्शन इसकी एक बड़ी वजह था।
पुल क्यों गिरे-यह सवाल उठा तो जांच बिठाकर दोषियों को दंडित करने की बातें सरकारें और प्रशासन की ओर से अरसे से की जाती रही हैं, लेकिन पुल गिरने और उसके बाद जांच-सजाओं का इतिहास बताता है कि देश में पुल गिरने से ज्यादा बड़ी त्रासदी जिम्मेदारी, जांच, ऑडिट और सजाओं के चरित्र का गिरना है। चूंकि दोषियों की धरपकड़ और सजाओं के मामले में ज्यादातर काम लीपापोती का होता है, इसलिए पुल, फ्लाईओवर, फुटओवर ब्रिज का गिरना बदस्तूर जारी है। ताजा मामला मध्य प्रदेश का है, जहां सिवनी जिले के सुनवारा गांव में वैनगंगा नदी पर करोड़ों रु पये की लागत से बने पुल ने उद्घाटन से पहले ही जलसमाधि ले ली। तीन करोड़ रु पये के खर्च से बन रहे इस पुल का निर्माण कार्य तय तारीख (30 अगस्त, 2020) से पहले पूरा हो गया, तो ग्रामीणों ने औपचारिक उद्घाटन का इंतजार किए बगैर बड़ी आस के साथ महीना भर पहले ही इसका इस्तेमाल शुरू कर दिया, लेकिन उनकी उम्मीदें राज्य में हो रही जोरदार बारिश में धराशाई हो गई।
हाल के दूसरे मामले देखें तो 16 जुलाई को बिहार के गोपालगंज को चंपारण को जोड़ने वाले चर्चित सत्तरघाट महासेतु के ढहने की खबर आई थी। गंडक नदी पर करीब 264 करोड़ की लागत से बने इस पुल का उद्घाटन इसी साल 16 जून को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हाथों हुआ था, इसलिए खबर आते ही नीतीश सरकार कठघरे में आ गई। हालांकि बाद में दावा किया गया कि सत्तरघाट पुल की बजाय उसे जोड़ने वाले सड़क (अप्रोच रोड) भारी बारिश में बही थी। बारिश के मौसम में पुलों, फ्लाईओवर, फुटओवर ब्रिज का ढहना या बह जाना हमारे देश में ऐसा है कि किसी साल मॉनसून अगर बिना पुल गिराए गुजर जाए, तो लगता है कि बारिश में ही कोई दम नहीं था। ग्रामीण, पहाड़ी, दुर्गम इलाकों में पुल आदि का ढहना जितना आम है, उतना ही आम शहरों में ओवरब्रिज, फुटओवर ब्रिज या फ्लाईओवर का टूटना है। इस मामले में महानगरीय और मजूबत इंफ्रास्ट्रक्चर के बल पर विकास के लिए चर्चा में रहने वाले शहर किसी से पीछे नहीं हैं। सच्चाई यह है कि पुलों के गिरने में हमारे देश में सबसे ज्यादा मुश्किल जवाबदेही तय करते वक्त होती है। यदि एक यही काम अरसा पहले पूरी ईमानदारी से कर लिया गया होता, तो शायद पुलों के इस तरह गिरने की नौबत न आती। दो साल पहले 12 मई, 2018 को पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में कैंट से लहरतारा के बीच सड़क पर बन रहे पुल का हिस्सा गिरा तो 18 लोगों की मौत हो गई। मामले की जांच को लेकर एक कमेटी भी बनी थी, लेकिन उसकी जांच रिपोर्ट अब तक लापता है। मध्य प्रदेश में भोपाल रेलवे स्टेशन पर 13 फरवरी 2020 को फुटओवरब्रिज के गिरने से 9 लोग घायल हुए तो रेलवे पर लापरवाही का आरोप लगा कि उसने पुल के जर्जर होने की शिकायतों की अनदेखी की जिससे यह दुर्घटना हुई।
मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिंनस स्टेशन पर 15 मार्च 2019 को फुटओवर ब्रिज गिरा तो 6 लोगों ने जान गंवा दी। इस मामले में मध्य रेलवे और बीएमसी के अफसरों पर लापरवाही के लिए मामला दर्ज हुआ, लेकिन बीएमसी ने ठीकरा उस फर्म पर फोड़कर अपने कर्तव्य की इतिश्री करने की कोशिश की, जिसने ऑडिट में लापरवाही बरती थी। यदि पुराने जर्जर पुलों की मामूली मरम्मत कर हादसे का इंतजार करना एक जघन्य लापरवाही है, तो ऑडिट में कमजोर पुल को अफसरों से मिलीभगत कर दुरुस्त बताना घोर अपराध है। इसी तरह घटिया सामग्री से नया पर कमजोर पुल बनाना ठेकेदारों-इंजीनियरों-अफसरों के बीच जनता के खिलाफ रची गई साजिश है, जिसके अपराधी सिर्फ जेल नहीं, बल्कि मृत्युदंड के हकदार हैं। पर सवाल है कि क्या हमारा समाज और सरकार ऐसी सजाओं की हिमायत कर सकेंगे। जब तक राजनीतिक संरक्षण की प्रवृत्ति और भ्रष्टाचार जीवित हैं, तब तक तो हरगिज नहीं। इसलिए पुलों का ढहना और आम लोगों का गिरते पुलों की चपेट में आकर मर जाना यह ऐसी नियति है, जिसे बदला नहीं जा सकता।
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