मीडिया : आंकड़ा बनने के इंतजार में
लगभग सभी खबर चैनलों की खबरों के बीच-बीच में कुछ नये स्वास्थ्य-बीमा-संबंधी विज्ञापन बार-बार दिखाए जाते हैं।
![]() मीडिया : आंकड़ा बनने के इंतजार में |
ऐसे ही एक विज्ञापन में एक युवक हमसे कहता रहता है कि अगर ‘आपको कुछ हो गया’ तो आपके बिल का खरचा कौन उठाएगा?..इसलिए कहता हूं कि ये पॉलिसी ले लीजिए। ये आपके अस्पताल के सारे खरचे उठाएगी..। एक अन्य विज्ञापन में यही युवक कहता है कि अगर कल को ‘आप नहीं रहे’ तो आपके अस्पताल का खर्चा कौन उठाएगा..इसीलिए कहता हूं कि ये पॉलिसी लीजिए..।
यों तो पहले भी ऐसे विज्ञापन टीवी पर आते थे लेकिन उनकी भाषा में हमारे ‘न रहने’ यानी कि हमारे मरने की ऐसी जोरदार कामना नहीं की जाती थी। पुराने बीमा-विज्ञापन हमारे ‘सुखी व सुरक्षित भविष्य’ की कामना किया करते थे। तब के विज्ञापनों में ‘अगर आपको कुछ हो गया या अगर कल को आप नहीं रहे तो क्या होगा?’ जैसे हिंसक वाक्य नहीं होते थे। क्योंकि वे जानते थे कि किसी के ‘न रहने’ की कामना अच्छा ग्राहक नहीं बना सकती। डरा हुआ ग्राहक ‘अच्छा ग्राहक’ नहीं होता! यह बात ‘अनलॉकिंग-वन’ के बाद खुले बाजारों में पसरे सन्नाटे को देखकर आसानी से समझी जा सकती है। इन बाजारों में ग्राहक इसलिए नहीं आ रहा है क्योंकि उसे पिछले दो ढाई महीने सिर्फ डराया गया है। उक्त किस्म के विज्ञापन इन दिनों फिर से डरा रहे हैं।
समाज में मौत को अशुभ माना जाता है। दुश्मनी में भले ही कुछ लोग एक दूसरे के ‘मरने की’ कामना करते हों, आम तौर पर आदमी किसी के मरने की कामना नहीं किया करता। सब जानते होते हैं कि जीवन क्षण भंगुर है। फिर भी कोई किसी के मरने की इस तरह से दुंदुभी नहीं बजाता कि ‘आपको कुछ हो गया तो क्या होगा’..या ‘कल को आप न रहे तो क्या होगा?’ लेकिन विज्ञापनों का क्या है? अगर मौत बिकती है, तो वो उसे भी बेच आकषर्क बनाकर सकते हैं। शायद इसीलिए इन दिनों टीवी में दिखने वाले कुछ विज्ञापनों की भाषा निरी ‘मृत्युवादी’ हो चली है।
यों तो इस तरह की भाषा के विज्ञापन कोरोना से पहले ही आने लगे थे लेकिन कोरोना के ‘मृत्युवादी वातावरण’ ने विज्ञापनों की भाषा को और भी उजड्ड बना दिया है। कोरोना पूर्व के दिनों में एक टीवी विज्ञापन में एक फिल्मी हीरो ‘यमराज’ बनकर आता था और एक युवक की गर्दन पकड़ कर फटकारते हुए यमलोक जाता था क्योंकि उसने बीमा नहीं कराया था। एक अन्य विज्ञापन में वह एक मरणासन्न व्यक्ति का उपहास उड़ाते हुए हमें समझाता था कि उस आदमी ने पॉलिसी नहीं ली थी तभी यह हालत हुई है कि..। ऐसे विज्ञापन हमारा ‘अशुभ -चिंतन’ कर हमें डराते रहते हैं ताकि हम उनकी ‘पॉलिसी’ के ग्राहक बन जाएं। यह मौत का बिजनेस नहीं तो और क्या है?
यों हम जानते हैं कि आजकल इलाज महंगा है और आम तौर पर लोगों के पास इलाज के लिए पर्याप्त पैसा नहीं होता। ऐसे में अगर लोग वक्त रहते पॉलिसी ले लें तो अपना इलाज करा सकते हैं। परंतु हमारी आपत्ति बीमा कराने के लिए दिए जाते इन विज्ञापनों को लेकर नहीं है, बल्कि उनकी उस भाषा को लेकर है जो ‘मृत्युकामी’ बना दी गई है और जो हमें हमारी मौत की ‘धमकी’ देकर, हमारी ही मौत को ‘नया नॉर्मल’ या ‘नया सामान्य’ बनाने की कोशिश करती है। टीवी के ऐसे विज्ञापन मौत के डर का वातावरण बनाते हैं। और मीडिया में आती कोरोना की खबरें मौत के डर के वातावरण को और घना करती हैं। वे मौत को ‘सामान्य’ बनाती हैं। पिछले चौबीस घंटे में कितने और संक्रमित हुए? दुनिया में कहां-कहां कितने संक्रमित हुए और कितने मरे? देश में और उसके राज्यों में कुल कितने और संक्रमित हुए, कितने ठीक हुए और कितने मरे? जिस राज्य में आप रहते हैं, उसमें कितने संक्रमित हुए और कितने और मरे? इस तरह, हमें ठीक होने वालों की जगह मरने वालों की संख्या ही याद रहती है। कोरोना की खबरों के बीच-बीच में आने वाले कुछ ऐसे ही विज्ञापनों की ‘मृत्युकामी भाषा’ ने हमारे जीवन में एक ‘नया नॉर्मल’ रच दिया है।
मीडिया की खबरों में ऐसे आंकड़े कुछ इस तरीके से दिए जाते हैं मानो कोरोना-महामारी सिर्फ एक आंकड़ा भर हो और मरने वालों का प्रतिशत आदमी का प्रतिशत न होकर सिर्फ एक गणितीय प्रमेय हो। ‘प्रतिशत’ में बदलते ही मरने वालों की दर्दनाक कहानियां शुष्क आंकड़ों में बदल जाती हैं और वे सिर्फ एक ‘गणितीय खेल’ रह जाती हैं। यह ‘गणितीय खेल’ हमारे ‘शोक-क्षोभ’ के भाव लोक को नरम कर देता है और हम स्वयं को एक आंकड़े, एक प्रतिशत में बदलता हुआ देखने के लिए आकुल होने लगते हैं।
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