सामयिक : सवाल करते लोग
दिल के फफोले जल उठे सीने के दाग़ से, इस घर को आग लग गई घर के चराग़ से..
![]() सामयिक : सवाल करते लोग |
इतिहास गवाह है कि भारत युद्ध के मैदान में अपनों की वजह से पराजित होता रहा है। अपने लोग सवाल करते, सेना का मनोबल तोड़ते, जनमानस को गुमराह करते और हवाई सपने दिखाते। और इसके नतीजे में भारत पराजित होता रहा। आज फिर वही पराजित होने वाले परिदृश्य को दोहराने की कोशिश हो रही। चीन अनेक कारणों से बौखलाहट में है। इसलिए वह भारत को निपटाने की जुगत लगा रहा है। सवाल खड़े कर स्वनामधन्य नेता अपने घर में अपने चिराग से वैचारिक रोशनी नहीं बिखेर रहे, बल्कि घर में मतभेद की आग से तबाही लाना चाहते हैं।
सवाल उठाने वाले स्वनामधन्य नेता यदि पीछे मुड़कर देखें तो सवालों के घेरे में उनके ही नाना-मामा दिखाई देंगे। अंग्रेजों की गुलामी से देश 1947 में आजाद हुआ। गांधी जी के कठोर आग्रह को ठोकर मार कर जवाहर लाल नेहरू ने देश विभाजन को मंजूरी दी। और इसके परिणाम को आज भी भारत भुगत रहा है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य बनने का मौका किसने गंवाया? सवाल इस पर उठना चाहिए? क्या स्वनामधन्य राजकुंवर नेता राहुल गांधी सवाल उठाने की हिम्मत करेंगे। आज की नई परिस्थितियों में सवाल खड़े कर राहुल गांधी अपने परनाना के मार्ग पर चलकर चीन को क्यों फायदा पहुंचाना चाहते हैं? स्वतंत्र भारत के इतिहास में सन 1962 काला धब्बा है। इसे पं. नेहरू की अदूरदर्शिता का परिणाम कहा जाता है। चीन ने भारतीय सामरिक हालात का सही आकलन किया और हमला बोल दिया। उस समय के रक्षा मंत्री पर भी सवाल खड़े हुए थे।
भारतीय सेना हार गई और एकतरफा युद्ध विराम कर चीन ने 40 हजार वर्ग किमी. भारतीय भू-भाग पर कब्जा कर लिया। उधर भारतीय संसद में अधिकांश सदस्य आक्रोश प्रगट कर रहे थे। जवाब में प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने बेशर्मी के साथ कहा कि हारी हुई जमीन बंजर और अनुपयोगी है। पं.नेहरू के इस बयान पर सदन आहत हो गया। सवाल उठता है कि क्या चीन ने ऊसर- बंजर के लिए युद्ध किया था? संसद के सदन लोक सभा में प्रधानमंत्री के बयान पर विरोध जाहिर करने के लिए कांग्रेस के महावीर त्यागी आक्रोश में भरकर बोले, ‘देश की भूमि को बंजर कहना उचित नहीं है। प्रधानमंत्री का ध्यान आकृष्ट करते हुए महावीर त्यागी ने अपना सिर दिखाते हुए तेज आवाज में कहा, ‘माननीय अध्यक्ष जी! मेरा सिर गंजा है, क्या मैं सिर कटा दूं?’ तब सदन में सन्नाटा छा गया था। नेहरू जी ने न तो पराजय की जिम्मेदारी ली और न ही इस्तीफा दिया था। इसे विचित्र संयोग समझा जाए, कि सोची-समझी रणनीति का हिस्सा माना जाए? पं. नेहरू के जीते जी चीन ने अनेक लाभ उठाए। उनके निधन के बाद वर्षो तक चीन से संबंध औपचारिक रहे। प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी चीन की यात्रा पर गए। इसके बाद चीन ने भारतीय सीमा में घुसपैठ की थी। डोकलाम में जब चीन की हलचल बढ़ी थी, खुद राहुल गांधी चीनी राजदूत से मिले थे। हो हल्ला मचा, राहुल गांधी का राजदूत से मुलाकात संबंधी फोटो वायरल हुआ तो मामला शांत हुआ था।
वस्तुत: चीन इस समय देश के अंदर-बाहर कई चुनौतियों से जूझ रहा है। कोरोना संकट के अलावा कई सामाजिक संकट भी हैं। एक बड़ा संकट तिब्बत की आजादी का भी है। उसने नेपाल की मदद से सैकड़ों साल पहले तिब्बत पर कब्जा किया था। फिर तिब्बत का दो भागों में विभाजन (इनर तिब्बत और आउटर तिब्बत) कर दिया। इसके बाद तिब्बतियों पर जुल्म ढाया जाने लगा। तिब्बती भारत की ओर आशा की निगाह से देख रहे हैं। चीन भी इस हकीकत को समझता है। सवाल इस मुद्दे पर भी उठना चाहिए। हालांकि आवश्यकता तो यह है कि, देश-हित में मतभेदों को दरकिनार कर सरकार का साथ दिया जाए और विकास- उत्थान के सुनहरे अवसर को हाथ से न जाने दिया जाए। बहरहाल, वास्तविकता यह है कि इस समय चाहे भारत में पड़ोसी देशों के साथ राजनयिक, सामरिक या आर्थिक मामलात हों या देश के आंतरिक मामलात हों, शुरुआत में सभी हक में होते हैं पर जब उसे अमल में लाना होता है तो सबके सुर बदलने लगते हैं।
कवि दीपक जैन दीप इस संबंध में कहते हैं कि ‘सभी थे एकता के हक में लेकिन, सभी ने अपनी अपनी शर्त रख दी।’ आशय यही है कि तमाम नेता, संगठन और राजनीतिक दल अपनी निजी महत्त्वाकांक्षा और भविष्य के लिए ज्यादा चिंतित हैं। अपने देश में विशिष्ट विचारधारा की संस्कृति पनप रही है। ये हालात देश के भविष्य और संस्कृति के साथ सौदा करने जैसे प्रतीत हो रहे हैं। हालांकि, मुंडे मुंडे मतिर भिन्ना: के अनुसार लोकतंत्र में अपनी बात कहने का हक सबको है। लेकिन मत-अभिव्यक्ति का अर्थ पूर्वाग्रह या दुराग्रह नहीं होना चाहिए। कहने की जरूरत नहीं कि सुखद परिणाम के लिए एकमत होना ही पड़ेगा। अन्यथा मत-भिन्नता के नाम पर अड़े रहे तो सब कुछ बिखर सकता है। देश तबाह हो सकता है। उदाहरण के लिए मान लें कि, हमें भोजन करना है और भोजन से सजी थाली भी सामने है, लेकिन मन कहे कि हमें यह पसंद नहीं है। हाथ कहे कि, चम्मच नहीं है, हाथ गंदा हो जाएगा। मुंह, दांत और जिह्वा कहे कि भोजन देखने में सुस्वादु और सुपाच्य नहीं है। परिणाम यही तो होगा कि, खाली पेट रहना पड़ेगा और भोजन भी बेकार हो सकता है। ठीक इसी तरह जब समाज के लोग, संगठनों के लोग और राजनीतिक दलों के लोग अपनी विचारधारात्मक बात कह सकते हैं परंतु अप्रासंगिक सवाल खड़े करके सरकार के निर्णयों पर अपने विचारों का कथित आवरण नहीं लगा सकते।
पार्टी और संगठन की लाइन से बाहर आकर सरकार का समर्थन करने की परंपरा अपने यहां रही है। कारण स्पष्ट है कि, सरकार के फैसले देश के लिए होते हैं, किसी विशेष के लिए नहीं। किसी फैसले को अमल में लाने की कालावधि खत्म होने से पहले सवाल खड़े करने से समस्या का समाधान संभव नहीं होता है। सरकार का भी मानस काठ नहीं चैतन्य होता है। वह समय रहते समयोचित और यथोचित निर्णय लेने में सक्षम होती है।
(लेखक एस्ट्रोलॉजी टुडे के संपादक हैं)
| Tweet![]() |