शिक्षण संस्थान : भेदभाव कब तक?

Last Updated 08 Jun 2020 03:06:52 AM IST

तेरह साल का एक वक्त गुजर गया जब थोराट कमेटी रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी।


शिक्षण संस्थान : भेदभाव कब तक?

याद रहे सितम्बर 2006 में उसका गठन किया गया था, इस बात की पड़ताल करने के लिए कि एम्स (ऑल इंडिया इन्स्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसेस, दिल्ली) में अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रों के साथ कथित जातिगत भेदभाव के आरोपों की पड़ताल की जाए। उन दिनों के अग्रणी अखबारों में यह मामला सुर्खियों में था।
आजाद भारत के इतिहास में वह अपने किस्म की पहली रिपोर्ट रही होगी, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर सुखदेव थोराट तथा अन्य दो सदस्यों ने मिल कर, इस अग्रणी संस्थान में आरक्षित श्रेणी के छात्रों को झेलने पड़ते भेदभाव के परतों को नोट किया था। विगत माह इसी संस्थान में एक महिला डॉक्टर द्वारा की गयी खुदकुशी की कोशिश-जिसकी वजह उसे कथित तौर पर झेलनी पड़ी यौनिक और जातिगत प्रताड़ना थी- दरअसल इसी बात की ताइद करती है कि समस्या अभी भी गहरी है और थोराट कमेटी की अहम सिफारिशों के बाद भी जमीनी हालात में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है। निश्चित ही एम्स की यह घटना कोई अपवाद नहीं है। हम इसे उच्च शिक्षण संस्थानों में व्यापक पैमाने पर देख सकते हैं। अभी पिछले ही साल पायल तडवी नामक अनुसूचित तबके से जुड़ी प्रतिभाशाली एवं सम्भावनाओं से भरपूर डॉक्टर ने-जो मुंबई के एक कालेज कम अस्पताल में पोस्ट ग्रेजुएशन की तालीम ले रही थी। उसने अपने वरिष्ठों के र्दुव्‍यवहार से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। अगर 26 साल की वह प्रसूति रोग विशेषज्ञ जिंदा रहती तो वह भील-मुस्लिम समुदाय की पहली महिला डॉक्टर बनती। एम्स की पीड़िता डॉक्टर की तरह पायल ने भी कालेज/अस्पताल के कर्ताधर्ताओं के पास-तथा अपने परिवारजनों के पास उसे अपनी सवर्ण सहयोगियों से झेलनी पड़ती जातीय प्रताड़ना की शिकायत बार-बार की थी।

पिछले साल किसी अखबार ने डॉ. पायल तडवी की आत्महत्या के बाद प्रोफेसर थोराट का साक्षात्कार लिया था, जिसमें उन्होंने बताया था कि किस तरह ऐसी संस्थानों में हाशिये के छात्रों के प्रति एक किस्म का दुजाभाव मौजूद रहता है और यह सवाल पूछा था ‘विगत दशक में ऐसे अग्रणी शिक्षा संस्थानों में अध्ययनरत 25-30 छात्रों ने आत्महत्या की है, मगर सरकारों ने शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव की समाप्ति के लिए कोई ठोस नीति निर्णय लेने से लगातार परहेज किया है।’ दो साल पहले आईआईटी मद्रास सुर्खियों में था, जब वहां शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों के लिए मेस में अलग अलग प्रवेशद्वार बनाये जाने का मामला सुर्खियों में था-जिसे लेकर इतना हंगामा हुआ कि संस्थान को यह निर्णय वापस लेना पड़ा। इस पूरे मसले पर टिप्पणी करते हुए अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्कल-जो संस्थान के अन्दर सक्रिय छात्रों का समूह है-ने कहा था: ‘दरअसल, ‘आधुनिक’ समाज में जाति कुछ अलग ढंग से भेष बदल कर आती है। आईआईटी मद्रास में वह मेस में अलग प्रवेश द्वार, शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों के लिए अलग-अलग बर्तन, खाने-पीने के अलग टेबिल और हाथ धोने के अलग बेसिन के तौर पर प्रतिबिम्बित होती है। यही वह समय था जब आईआईटी पर ही केंद्रित एक अध्ययन सुर्खियों में आया था, जिसमें आईआईटी में जाति और प्रतिभातंत्रा के आपसी रिश्ते पर रोशनी डाली गई थी।
अपने निबंध ‘एन एनोटोमी आफ द कास्ट कल्चर एट आई आई टी मद्रास’ में अजंता सुब्रम्हणयम, जो हार्वर्ड विश्वविद्यालय में सोशल एन्थ्रोपोलोजी की प्रोफेसर हैं और जो आईआईटी में जाति और मेरिटोक्रेसी/प्रतिभातंत्रा की पड़ताल की थी, उन्होंने इस बात को रेखांकित किया था कि किस तरह ‘जाति और जातिवाद ने आईआईटी मद्रास को लंबे समय से गढ़ा है, और जिसका आम तौर पर फायदा उंची जातियों ने उठाया है’। सवाल आज भी यह मौजूं है कि आखिर सामाजिक तौर पर वंचित एवं उत्पीड़ित तबकों से आनेवाले ऐसे कितने छात्रों को जो शेष मुल्क के लिए एक रोल मॉडल बन सकते हैं अपनी कुर्बानी देनी पड़ेगी ताकि शेष समाज इस मामले में अपनी बेरूखी और शीतनिद्रा से जागे। क्या शेष समाज का यह फर्ज नहीं बनता कि वह इस पूरे मामले में आत्मपरीक्षण करे और यह देख कि वह ऐसे अपमानों/इनकारों/मौतों में किस हद तक संलिप्त है या नहीं है। मशहूर कवयित्री मीना कंडास्वामी ने रोहित की मौत के बाद जो लिखा था वह आज भी मौजूं है: ‘एक दलित छात्रा की आत्महत्या कोई निजी पलायन की रणनीति नहीं होती, दरअसल वह उस समाज के शर्म में डूबने की घड़ी होती है, जिसने उसे समर्थन नहीं दिया।’

सुभाष गाताडे


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