मीडिया : खबरों से कौन डरता है?
‘लॉकडाउन’ के शायद सत्तर दिन बाद स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक एडवायजरी जारी की है कि बुजुर्ग टीवी की खबरें अधिक न देखें। इससे निराशा फैलती है।
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कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी ‘एडवायजरी’ (संदेश) की वजह से ‘संदेशवाहक’ को ही शूट करने वाली बात है। यह है मंत्रालय की ‘मीडिया-समझ’।
ऐसी महान सलाह देते वक्त मंत्रालय शायद यह भी भूल गया कि वह स्वयं चैनलों में आकर हर रोज कोरोना से लड़ने के लिए जनता को जागरूक करता रहा है। खबर चैनल न होते तो क्या सरकार व मंत्रालय डुगडुगी पीटकर, मुनादी कराकर, 135 करोड़ जनता तक अपनी बात पहुंचा पाते? आज चौबीस बाई सात के हिसाब से खबर देने वाले ढेर सारे चैनल न होते तो 135 करोड़ जनता को कोरोना के खतरे से जागरूक कैसे कर पाते और ‘लॉकडाउन’ को कैसे सफल बना पाते? पिछले दो महीने में पीएम ने स्वयं चार या पांच बार आकर सारे देश की जनता को इन्हीं चैनलों के जरिए संबोधित किया। ‘लॉकडाउन’ कब से कब तक होगा, यह बताया और लोगों ने उसका पालन किया। कोरोना से लड़ने के लिए सबसे जरूरी था जनता को कोरोना के खतरों के प्रति सजग करते रहना, उसकी आदतों को बदलना, उसके आचरण को बदलना और यह काम मीडिया ने खूब किया। मीडिया दिन-रात बताता रहा कि कोरोना का अभी न कोई टीका है, न दवा। इसलिए उससे बचाव ही उसकी काट है, कि इसको फैलने से रोकने का सबसे बेहतरीन उपाय है ‘लॉकडाउन’। और,‘लॉकडाउन’ तभी कामयाब हो सकता है जब सब कुछ बंद हो। उद्योग व बाजार बंद रहें। लोग घरों में बंद रहें। अगर मजबूरी में निकलें तो मास्क पहनकर निकलें। सोशल डिस्टेंसिंग करें। हेंड सेनीटाइजर का इस्तेमाल करें। बीस सेकिंड तक साबुन-पानी से हाथ धोते रहें। बाहर से आए जरूरी सामान को धोकर सेनीटाइज करें..आदि इत्यादि।
मीडिया यह भी बताता रहा कि कोरोना से संक्रमित के क्या लक्षण होते हैं? किसी में लक्षण दिखें तो उसे क्या करना है? सामान्य जुकाम, बुखार कोरोना नहीं हैं। जिसमें लक्षण दिखें वे जांच कैसे कराएं। अपने को ‘सेल्फ क्वारंटाइन’ में कैसे रखें? ‘आइसोलेशन’ में कैसे रखें? किस-किस अस्पताल में बेड हैं? किस लेब में जांच संभव हैं? आदि, इत्यािद। ऐसी न जाने कितनी ही जरूरी सूचनाएं चैनलों ने जनता तक दिन-रात पहुंचाई हैं और ‘लॉकडाउन’ आज सफल माना जा रहा है, तो उसका बड़ा कारण रहा है मीडिया का चौबीस बाई सात का लाइव कवरेज।
एक सूचना के अनुसार ‘लॉकडाउन’ के दो महीने के दौरान अकेले केंद्र सरकार ने कोई 92 आदेश-निर्देश जारी किए। राज्य सरकारों ने भी बहुत से आदेश निकाले जिनके जरिए अखिल भारतीय स्तर पर लोग लगभग एक-सा आचरण कर पाए। खबर चैनल कोरोना को कंट्रोल करने से संबंधित खबरें न देते तो क्या स्थिति होती? मीडिया जानकारी न देता तो क्या होता? क्या आज के युग में हम डुगडुगी पीटकर जनता तक संदेश पहुंचाते? कहना न होगा कि जनता को सजग करने की मीडिया की इस भूमिका की तारीफ सबने की। हमें समझना चाहिए कि खबर, खबर होती है। कोई खबर हमें निराश कर सकती है, तो कोई खबर हममें आशा का संचार भी कर सकती है।
यह सच है कि बुजुर्गों में कोरोना जैसे रोगों से लड़ने की क्षमता कम होती है, लेकिन खबरें देखकर वे निराश होते हैं, यह कहना उनको दयनीय बनाना है। जिन मनोचिकित्सकों की सलाह पर स्वास्थ्य मंत्रालय ने उक्त एडवायजरी जारी की है, वह ‘उल्टे बांस बरेली’ वाली कहावत को चरितार्थ करने वाली है। अगर आप खबर नहीं देखेंगे तो कोरोना के खतरे से जागरूक कैसे होंगे और अगर जागरूक न होंगे तो उससे लड़ेंगे कैसे? इसलिए बुजुर्गों को टीवी-खबरें देखने से हतोत्साहित करने की सलाह, उनको उसी खतरे से दूर रखने की कोशिश है, जिससे उनको लड़ना है। जरा भी असावधानी बरतने पर वे स्वयं उसी खतरे के शिकार हो सकते हैं।
स्वास्थ्य मंत्रालय स्वयं कहता रहा है कि कोरोना का खतरा सचमुच का खतरा है। ऐसे में, कबूतर की तरह आंख मूंद लेने से यह खतरा क्या टल जाना है? यह सच है कि लोग डरे हुए हैं लेकिन यह खबरों का दोष नहीं, कोरोना का दोष है। ऐसे में मीडिया महामारी को महामारी न बताए, तो क्या करे? खतरे को खतरा न बताए तो कहा जाएगा कि मीडिया खतरे को कम करके दिखा रहा है, पूरा सच नहीं बता रहा और वह पूरा सच बताता है, तो कहते हैं कि वह निराश करता है। मंत्रालय की यह कौन-सी मानसिकता है, जो खबरों से ही डरती-डराती है।
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