वैश्विकी : क्यों नहीं हारता रंगभेद
अमेरिका वुहान से निकले वायरस से लड़ ही रहा था कि घरेलू समाज जीवन और राजनीति में शताब्दियों से जड़ जमाये नस्लभेद के वायरस ने पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।
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कुछ मायनों में यह वायरस कोरोना वायरस से भी अधिक घातक है। कोरोना वायरस के विरुद्ध वैक्सीन तो संभव है कि इस साल के अंत तक बनकर तैयार हो जाए लेकिन नस्लभेद का वायरस जल्दी खत्म होने वाला नहीं है। अमेरिका में महामारी से एक लाख लोग मर चुके हैं। अन्य दसियों लाख लोग संक्रमण के शिकार हैं, जिनमें बहुत से गंभीर रूप से बीमार हैं। महामारी की विभीषिका के बीच मिनियापोलिस शहर में एक अश्वेत व्यक्ति की मौत ने पूरे देश का माहौल बदल दिया है। लोग सड़कों पर हैं। ‘अश्वेत जान की भी कीमत है’ (ब्लैक लाइव्स मैटर) का पुराना आंदोलन पूरे उभार पर है। महामारी के विरुद्ध बचाव के उपायों जैसे मुंह पर मास्क और सोशल डिस्टेंस्टिंग की किसी को परवाह नहीं है। अब जबकि पिछले एक सप्ताह से जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद उभरा आंदोलन जोरों पर है। संक्रमण कितना बढ़ेगा, इसे लेकर विशेषज्ञ चिंतित हैं।
जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के कारण तात्कालिक भावनात्मक रोष स्वाभाविक था, लेकिन आंदोलन के नेताओं, इसमें भाग लेने वाले लोगों और मीडिया की जिम्मेदारी है कि वे यह विचार करें कि क्या संकट का यह समय आंदोलन के लिए उचित है? सड़कों पर उतरना और लंबे समय तक आंदोलन जारी रखने के क्या नतीजे होंगे, इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। वास्तव में अमेरिका में हो रही इस उथल-पुथल का बड़ा कारण देश की अपराध-न्याय प्रणाली है, जिसमें बहुत खामियां हैं। सामाजिक संगठन और राजनीतिक नेता न्याय प्रणाली की इन खामियों की ओर लंबे समय से ध्यान आकृष्ट कराते रहे हैं। पूरी प्रणाली अश्वेतों व अन्य नस्ली समूह के विरुद्ध भेदभाव करती है। साथ ही पुलिस की कार्यशैली भी जरूरत से अधिक शक्ति प्रयोग पर आधारित है। जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद चार पुलिसकर्मियों के विरुद्ध हत्या या हत्या में मदद करने के आरोप लगाए गए हैं। आखिर सवाल यह है कि यदि इन चार पुलिसकर्मियों को सजा मिल भी जाए तो इस बात की क्या गारंटी है कि भविष्य में ऐसी घटनाएं नहीं होंगी। राजनीतिक विश्लेषक देश के मौजूदा असंतोष को नवम्बर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से भी जोड़ रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप दुबारा निर्वाचित न हों, इसके लिए विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी पूरा जोर लगा रही है। देश का अदृश्य सत्ता प्रतिष्ठान और मीडिया भी इस आंदोलन के आधार पर ट्रंप के विरुद्ध माहौल बनाने की कोशिश में है। ट्रंप दोहरे आक्रमण का सामना कर रहे हैं। एक ओर उन्हें महामारी से लड़ने में असफल रहने के आरोप का सामना करना पड़ रहा है, वहीं अश्वेतों के विरुद्ध सरकारी या गैर- सरकारी हिंसा को रोक नहीं पाने की आलोचना सहनी पड़ रही है। आलोचकों का पुराना आरोप है कि ट्रंप की नीतियों के कारण देश में हरेक स्तर पर विभाजन हुआ है। राजनीतिक विरोधियों की अपील है कि अमेरिकी मतदाता अगले चुनाव में विभाजनकारी ट्रंप को पराजित करें।
जहां तक ट्रंप का सवाल है तो वह आलोचना से विचलित नजर नहीं आते। संकट के इस दौर में भी वह अपनी आर्थिक उपलब्धियों का हवाला देकर फिर से जनादेश हासिल करने की पूरी कोशिश में हैं। रोजगार सृजन के नये आंकड़ों से उन्हें ताकत मिली है। मई महीने में लॉकडाउन शिथिल होने के बाद देश में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर पैदा हुए हैं। उनके आधार पर ट्रंप का चुनावी नारा है ‘जॉब बनाम मॉब’ (रोजगार बनाम भीड़)। उनका दावा है कि महामारी के दौर में भी अमेरिका में रोजगार के 25 लाख अवसर पैदा हुए हैं। उनका कहना है कि अश्वेत लोगों को इसका बहुत लाभ हुआ है। ट्रंप का जनाधार मुख्यत: ईसाई धर्मावलंबी श्वेत मतदाताओं का है। ये शहरों के बजाय कस्बों या ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। ट्रंप इन्हें मौन बहुमत की संज्ञा देते हैं। उन्हें विश्वास है कि यह मौन बहुमत आगामी चुनाव में निर्णायक सिद्ध होगा। चुनाव में ट्रंप जीतते हैं या डमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडेन, यह सवाल उनके सामने रहेगा कि देश की अपराध-न्याय प्रणाली में कितने व्यापक और कितनी शीघ्रता से सुधार करें, जिससे कि अमेरिकी समाज और अधिक विघटित न हो। महामारी के बाद देश की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए सामाजिक एकता एक अनिवार्य शर्त है।
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