मुद्दा : काश! गांव-केंद्रित योजनाएं बनतीं
भारत में वर्तमान समस्याओं ने जहां भारत के पूरे आर्थिक-राजनीतिक तंत्र को हिला कर रख दिया है वहीं सोचने पर मजबूर कर दिया है कि हम अपने विकास के प्रतिमान की पुन: समीक्षा करें।
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आज कोरोना बीमारी ने जहां भारत के पूरे स्वास्थ्य तंत्र की कलई खोल दी है, वहीं देश के शहरों से भारी मात्रा में मजदूरों के गांवों की ओर पलायन ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि हमने आजादी के इतने वर्षो में किया क्या है?
आजादी के बाद देश के नेताओं और बुद्धिजीवियों को तय करना था कि भारत के विकास का कौन-सा आर्थिक प्रतिमान अपनाएं। एक तरफ अमेरिकी पूंजीवादी प्रतिमान था तो वहीं रूस का साम्यवादी प्रतिमान भी था, वहीं डॉ. अम्बेडकर एवं पंडित दीनदयाल उपाध्याय का अपना देशज प्रतिमान भी था। डॉ. अम्बेडकर ने कहा, ‘देश में भारी उद्योग लगने चाहिए। इनकी आवश्यकता है, लेकिन साथ ही देश में कृषि का भी विकास हो क्योंकि एक ओर यह क्षेत्र भारी उद्योगों को कच्चा माल उपलब्ध कराता है वहीं लोगों को सबसे ज्यादा रोजगार भी देता है’। लेकिन उस समय ये दोनों ही नेता राजनीतिक अस्पृश्यता के शिकार हुए और तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने ऊपर से समाजवादी दिखे लेकिन अंदर से पूंजीवादी प्रतिमान को ही देश के लिए उपयुक्त माना। 1991 में आकर इसको बदल दिया गया और मार्केट को खोल दिया गया। बड़े-बड़े आर्थिक पैकेज उद्योग घरानों को मिले जिसने फिर ‘करोनी कैपिटल्ज्मि’ को ही बढ़ाया। अब पैसा कुछ घरानों के पास ही केंद्रित होने लगा, इसने समाज में और अधिक असमानता पैदा कर दी। नेहरू की सोच थी कि विकास शहरों से छन के गांवों तक जाएगा। आज की परिस्थतियों को देख कर लगता है कि यह सोच पूरी तरह विफल रही।
आज हमें उस प्रतिमान की ओर देखना पड़ेगा जिसकी बात पंडित दीनदयाल उपाध्याय और डॉ. अम्बेडकर ने की थी। अम्बेडकर की यह दूरदृष्टि ही थी कि जहां वो भारत में 1918 में ही उद्यमिता की बात कर रहे थे, सरकारों को छोटे-मंझोले काम-धंधों के लिए महिला और समाज के कमजोर दलित वगरे को आर्थिक सहायता की बात कर रहे थे वहीं कृषि को सरकार से प्रोत्साहन की बात भी कह रहे थे। मानते थे कि भारत में कृषि की बुरी स्थिति के लिए ‘जोतों के छोटे आकार’ जिम्मेदार हैं। गांव के लोग आपस में मिल कर खेती करें और सरकार इस पर अपना नियंत्रण रखे तो किसानों का जीवन खुशहाल हो सकता है। अभी हाल ही के पंजाब सरकार के आंकड़े चौंकाने वाले हैं, पंजाब में बंदी के समय खेतों में कटाई, भंडारण आदि सभी गतिविधियां सरकार ने अपनी निगरानी में कराई। परिणाम उत्पादन में बढ़ोतरी के रूप में दिखा। पंजाब में पिछले साल गेहूं की कटाई में कुल उपज प्राप्त हुई 1.4 मिलियन टन, वहीं इस बार यह बढ़ कर 2.8 मिलयन टन हो गई। पंजाब सरकार का इस पर कहना है कि अन्न की बर्बादी को बचाने से यह प्रतिशत बढ़ा है।
अब देखें अम्बेडकर कितने वर्षो पहले कृषि के बारे क्या कह रहे थे, लोग ‘कनेक्टिंग कलेक्टिव फार्मिग’ करते हैं तो खेती में लागत कम, उपज अधिक और जोखिम कम रहता है, जो किसानों के हित में है। साथ ही, उपज अधिक तो बाजार में उत्पादन अधिक, सामान की कीमत कम और खरीदार का अधिक मुनाफा, ये सब व्यक्ति की बचत बढ़ाते हैं। यह देश का देशज प्रतिमान है जिसकी अम्बेडकर ने बात की, भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्वपूर्ण योगदान है। वहीं उपाध्याय ने ‘जैविक विकास प्रतिमान एवं स्वदेश निर्मिंत विकास प्रतिमान’ की बात की। यह पूर्ण स्वदेशी है, जिसमें कृषि, छोटे-मझोले उद्योग, नैतिक मूल्य इन तीन तत्वों का मेल है। उनका मानना था कि कृषि को अधिक उन्नत बनाना चाहिए, गांवों को छोटे औद्योगिक इकाई के रूप में विकसित करना, आवश्यकतानुसार उत्पादन और उत्पादन में नैतिकता का ध्यान रखा जाना चाहिए। वर्तमान सरकार की नीतियों का विश्लेषण किया जाए तो ये योजनाएं भारत को ‘आत्मनिर्भर भारत’ की ओर ले जा रही हैं, जिनने देश के सबसे गरीब व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा दी। ये योजनाएं आजादी के 70 वर्षो में बाद प्रारंभ हुई। अगर हमने गांव केंद्रित योजनाओं का निर्माण किया होता तो आज हम मजदूर पलायन की समस्या का सामना नहीं कर रहे होते।
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