कोरोना संकट : सबक सीखे दुनिया
अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी में मेडिकल हिस्ट्री के प्रोफेसर फ्रैंक स्नोडेन ने अपने शोधपरक ग्रंथ ‘एपेडेमिक्स एंड सोसाइटी: फ्रॉम द ब्लैक डेथ टु द प्रेजेंट’ में कोरोना या कोविड-19 को ‘भूमंडलीकरण की पहली महामारी’ बताया है।
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उनका कहना है कि महामारियों के फूलने-फलने की पस्थितियां मनुष्य उत्पन्न करते हैं। यह बात कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। किसी रोग और महामारी का संबंध सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से है। यह बात किसी भी देश का शासक वर्ग आज स्वीकार करेगा, इसकी संभावना नहीं है।
कोरोना को लेकर जहां अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हलचलें हैं, चीन के साथ अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगी अपनी व्यापारिक अदावत निपटाने की कोशिशों में हैं, वहीं स्नोडेन ने इसे भूमंडलीकरण का परिणाम बताकर दृश्य ही बदल दिया है क्योंकि भूमंडलीकरण की वाहक अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थाएं हैं और इन संस्थाओं की बागडोर विकसित और संपन्न पश्चिमी संसार के हाथ में है। यदि हम आधुनिक युग की प्रमुख महामारियों पर दृष्टि डालें तो स्नोडेन का निष्कर्ष पुष्ट होता है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में औद्योगिक क्रांति के बाद इंग्लैंड में तपेदिक (क्षयरोग) का विस्फोट हुआ; उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में साम्राज्यवाद का वि-वर्चस्व कायम होने के बाद, प्लेग फैला, जिसकी व्यापकता को देखते हुए पहली बार ‘एपेडेमैक ऐक्ट’ बना; बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में इन्फ्लुएंजा का हमला हुआ, जिसमें भारत के एक करोड़ अस्सी लाख लोगों की मृत्यु हुई और यूरोप की एक तिहाई आबादी नष्ट हो गई।
तीनों महामारियों का संबंध आधुनिक पूंजीवाद की विषमतामूलक प्रवृत्तियों से है, जिसने एक तरफ वंचना, दूसरी तरफ लूट को सार्वभौम नियम बना दिया है। उसी प्रकार कोरोना का संबंध भूमंडलीकरण से है। इस पर थोड़ा विचार करें। तपेदिक का विस्फोट इंग्लैंड के औद्योगिक केंद्रों में हुआ था, जहां मजदूरों के रहन-सहन की परिस्थितियां अत्यंत दारुण थीं। यह बीमारी पहले भी थी, लेकिन तब इसे ‘राजरोग’ कहा जाता था। इसी प्रकार प्लेग और इन्फ्लुएंजा का प्रकोप भी निर्धन बस्तियों में हुआ, जिसका असर आगे चलकर मध्यवर्ग पर भी पड़ा। साधन-संपन्न उच्चवर्ग इन महामारियों से सामान्यत: अप्रभावित रहा। कोरोना पहली महामारी है, जो नई वि-व्यवस्था के ध्वजवाहकों के माध्यम से फैली है। इसका प्रकोप सबसे पहले चीन के वुहान नगर में हुआ, जो भूमंडलीकरण के चलते विनिर्माण का बहुत बड़ा केंद्र बना। वहां से जहाजों में सवार होकर दुनिया भर में गया। आर्थिक विकास में समर्थ देशों पर इसकी सबसे गंभीर मार पड़ी है। भारत में ही देखें तो मुंबई, अहमदाबाद, पुणो, दिल्ली जैसे अधिक विकसित नगर उसकी चपेट में अधिक हैं, भारत के गांव इससे तब तक अछूते रहे जब तक संक्रमित लोगों को बिना जांच-पड़ताल के वहां नहीं पहुंचाया गया। गांवों में इसका प्रसार अब भी बहुत कम है।
संक्षेप में, पहले की महामारियां निर्धनों के बीच उत्पन्न होकर क्रमश: ऊपर के तबकों तक जाती थीं, कोरोना ऊपर के तबकों में उत्पन्न होकर क्रमश: नीचे पहुंचा है। इसीलिए संभवत: पहली बार विकसित और संपन्न संसार इसे लेकर इतना चिंतित है। स्नोडेन ने यह महत्त्वपूर्ण बात कही है कि कोरोना-19 ने उस औद्योगिक विकासनीति का अवशोषण किया है, जो प्रकृति और पर्यावरण की कीमत पर ताबड़तोड़ वृद्धि के रास्ते पर चल रहा है और जो इस बात का साक्ष्य है कि दुनिया ने इतिहास से कोई गंभीर सीख नहीं ली है। इस दृष्टि से देखने पर समझ में आता है कि कृषि पर निर्भर ग्रामीण अर्थतंत्र आज भी प्रकृति के सर्वाधिक अनुकूल है, पर्यावरण के विनाश में उसकी प्रत्यक्ष भूमिका नहीं है। इतिहास से सीख लेना तो दूर, कोरोना के बहाने विचारधारात्मक संघर्ष शुरू हो गया है। भारत का पूंजी-नियंत्रित मीडिया सांप्रदायिक राजनीति के सुर-में-सुर मिलाकर लोगों के दिमाग में यह बात बिठाने में बहुत हद तक सफल हुआ है कि कोरोना का फैलाव तब्लीगी मरकज के कारण हुआ। हालांकि उसे याद आना चाहिए था कि फरवरी के अंत में जब कोरोना का पर्याप्त संक्रमण हो चुका था, तब साढ़े पांच हजार लोगों का प्रतिनिधिमंडल लेकर राष्ट्रपति ट्रंप भारत आए थे और अहमदाबाद में लाखों की भीड़ एकत्र हुई थी, लेकिन यह तो एक देश की समस्या है। इससे अधिक व्यापक विचारधारात्मक संघर्ष का दूसरा पहलू है।
चाल्र्स डार्विन के सिद्धांत को सही सिद्ध करते हुए यह मत प्रचारित किया जाने लगा है कि ताकतवर ही जिएगा! महामारियां कमजोरों को धरती से हटाने के लिए आती हैं। इससे अधिक अमानवीय कोई नजरिया नहीं हो सकता। दूसरी ओर स्नोडेन जैसे बुद्धिजीवियों का तथ्यों पर आधारित वैज्ञानिक नजरिया है कि हम ‘प्रकृति के विरु द्ध विकास’ की अवधारणा पर चल रहे हैं। पूंजीवाद ने मनुष्य से प्रकृति के युद्ध का जो विचार अपनाया है, उसका यह सहज परिणाम है। इस युद्धवादी मानसिकता के अनुरूप भारत में हम कोरोना से रक्षकों को ‘योद्धा’ कहते हैं। स्नोडेन के कथन को चेतावनी के रूप में लेना चाहिए और विकास की अपनी धारा को न केवल प्रकृति के अनुकूल बनाना चाहिए बल्कि मनुष्य के लिए भी हितकर बनाना चाहिए। इस काम में गांधी और मार्क्स के सामाजिक दर्शनों को मिलाकर एक सुसंगत रणनीति अपनाई जा सकती है। गांधी से चौथाई सदी पहले मार्क्स ने कहा था कि पूंजीवाद केवल मनुष्य का शोषण नहीं करता, प्रकृति का शोषण भी करता है। इसके परिणाम घातक होंगे। आगे की घटनाओं ने पिछली डेढ़ शताब्दी में इसकी गवाही दी है।
संभवत: इसीलिए मार्क्स के सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्स ने प्रकृति के साथ विज्ञान के दो तरह के बर्ताव में अंतर किया था। एक; प्रकृति पर मनुष्य की विजय का बर्ताव; दूसरा, मानुष और प्रकृति के सहयोग का बर्ताव-जिसके अनुसार ‘मनुष्य के रूप में प्रकृति ने अपनी आत्मचेतना प्राप्त की।’ इस अंतर को कोरोना के संदर्भ में भी देखा जाता है। चीन से सात समंदर पार समृद्ध संसार का मुखिया अमेरिका कोरोना संक्रमण से सर्वाधिक प्रभावित है, लेकिन अठारह साल अमेरिकी बमबारी झेलकर 1974 में स्वतंत्र हुआ वियतनाम में कोरोना से एक भी मृत्यु नहीं हुई, संक्रमण के कुल 128 मामले निकले, वे भी विदेशों से आने वालों के, उन्हें एकांत में रखा गया, उनके लिए पूरे देश को कैदखाना नहीं बनाया गया। चीन ने वुहान शहर को भूमंडलीकरण का रंगमंच बनाया, उससे समृद्धि जरूर आई लेकिन वुहान कोरोना जैसी असाध्य महामारी का जन्मस्थान भी बना। शायद इससे दुनिया अब कोई सबक सीखे।
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