चुन्नी दा : उनके सपनों को पाना होगा
भारत के महानतम फुटबॉलरों में शुमार चुन्नी गोस्वामी नहीं रहे। पर उन्होंने देश को उपलब्धियां दिलाने में जिस तरह की भूमिका निभाई, उसके अनुरूप उनके निधन की खबर सुर्खियों में नहीं रह सकी।
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सही मायनों में बॉलीवुड सितारे ऋषि कपूर का निधन होने से उनकी खबर दबकर रह गई। दिलचस्प बात यह है कि आज फीफा विश्व कप के मैचों को देखने के लिए बड़े-बड़े फिल्मी सितारों के बीच होड़ मची रहती है। पर दुर्भाग्य इस बात का है कि देश का फुटबॉल जगत में मान बढ़ाने वाला खिलाड़ी लोगों के दिलोदिमाग में छाने से क्यों पिछड़ गया? चुन्नी दा जितनी महारत फुटबाल में रखते थे, उतने ही दक्ष वह क्रिकेटर भी थे।
बंगाल ने 1971-72 में उनकी अगुआई में रणजी ट्रॉफी के फाइनल तक चुनौती पेश की। हालांकि वह अपनी टीम को चैंपियन नहीं बना सके और उनकी टीम मुंबई से हार गई थी। वह इस दरजे के क्रिकेटर थे कि 1966 में वेस्ट इंडीज के खिलाफ खेलते समय कप्तान गैरी सोबर्स भी उनकी सराहना करने से नहीं रह सके थे। इस मैच में चुन्नी दा आठ विकेट लेने के बाद 25 गज दौड़कर कैच पकड़ा तो सोबर्स ने उनकी जमकर तारीफ की। चुन्नी गोस्वामी के प्रशंसकों में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन शामिल थे। वह डूरंड कप में उनके मैच देखने के लिए जाया करते थे। चुन्नी दा के फुटबाल खेलने के दिनों में इंग्लिश क्लब टोटेनहम होट्सपर ने उन्हें अपने यहां खेलने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन कुछ ही दिनों पहले स्टेट बैंक में नौकरी लगने की वजह से वह इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सके थे। भारतीय फुटबॉल में 1956 से लेकर 1962 का समय स्वर्णकाल माना जाता है।
इस दौरान भारत ने 1956 के ओलंपिक में चौथा स्थान पाने के अलावा 1962 में एशियाई खेलों का चैंपियन बना। भारतीय सफलताओं का सिलसिला 1970 के एशियाई खेलों में कांस्य पदक पाने के बाद एकदम से थम गया। इसके बाद भारतीय फुटबाल के स्तर में लगातार गिरावट आती चली गई और हम एक समय 173वीं रैंकिंग तक पिछड़ गए। पर देश में फुटबाल के संचालक अपने प्रयासों की समीक्षा करने के बजाय देश में सुविधाओं की कमी, प्रायोजक नहीं मिलने और खिलाड़ियों को खेलने के पर्याप्त अवसर नहीं मिलने का ही रोना रोते रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि जिस एशिया का विश्व फुटबॉल में कोई खास नाम नहीं है, उस एशिया की निचली टीमों में हमारा नाम शुमार होने लगा। इससे निकलने के लिए हमें चुन्नी दा, पीके बनर्जी, तुलसीदास बलराम और नेविले डिसूजा जैसे खिलाड़ियों को निकालने की जरूरत है। देश के इस सबसे लोकप्रिय खेल के संचालकों में गंभीरता में कमी की वजह से भारतीय फुटबॉल का स्तर कभी ऊपर जाता नजर नहीं आया। 1980 में देश में इस लिहाज से नेहरू कप की शुरुआत की गई कि इससे हमारे खिलाड़ियों को विदेशी खिलाड़ियों से खेलने का अनुभव मिलेगा और उनका स्तर उठाने में मददगार साबित हो सकता है। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। आई लीग की भी इसी उद्देश्य से शुरुआत की गई। लेकिन विभिन्न टीमों में निचले दरजे के विदेशी खिलाड़ी लेने के कारण इसका भी कुछ खास फायदा भारतीय फुटबॉल को नहीं मिल सका। पिछले कुछ सालों में भारतीय फुटबॉल को सही दिशा देने की तरफ कदम उठाए जाते नजर आने लगे हैं। सही मायनों में 2017 में अंडर-17 फीफा विश्व कप का आयोजन करके भारत ने फुटबॉल स्तर में सुधार लाने का सही प्रयास किया। इस विश्व कप में भाग लेने वाले कई खिलाड़ी आज भारतीय टीम में शामिल हैं। इसके अलावा देश में आईएसएल के आयोजन से भारतीय खिलाड़ियों को दिग्गज विदेशी खिलाड़ियों के साथ खेलने का अवसर मिलने से उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है। पर अब दिक्कत यह है कि विश्व की दिग्गज फुटबाल टीमों और भारतीय फुटबॉल टीम के स्तर में इतना बड़ा अंतर बन चुका है, जिसे पाटना आसान नहीं है।
भारतीय फुटबॉल फेडरेशन विदेशी कोच से लेकर खिलाड़ियों को विदेश में खेलने के भरपूर मौके दिलाकर इस अंतर को पाटने का भरपूर प्रयास जरूर कर रही है। इसका सर्वश्रेष्ठ तरीका है खिलाड़ियों को 10-12 साल की उम्र से लेकर उन्हें विदेशी अकादमियों में तैयार करना। पिछले कुछ सालों के प्रयासों से हमारी टीम फीफा रैंकिंग में 108वें स्थान पर आ गई है। पहला लक्ष्य टॉप 100 में शामिल होना है। पर सही बात तब ही बनेगी, जब हम टॉप 30 टीमों से भिड़ने का माद्दा हासिल कर सकेंगे। चुन्नी गोस्वामी जैसे महान फुटबॉलर को सही श्रद्धांजलि भी टीम के कम-से-कम एशियाई खेलों में पदक जीतकर दी जा सकती है। पर हम अभी इस लक्ष्य से कुछ दूर नजर आ रहे हैं।
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